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चतुर्विंशतिस्तोत्र
स्व स्वरूप प्रतिभासमान होने के साथ-साथ समस्त विश्वीय पदार्थ भी अपनी अशेष पर्यायों के साथ प्रकाशित होते हैं झलकते हैं । यथा मणि रत्न के प्रकाश में स्वयं मणि भी अपने को दर्शाती है और पर पदार्थों को भी तथा प्रदीप भी स्व पर प्रकाशक शक्ति सम्पन्न देखा जाता हैं । इसी प्रकार आपका आत्मीय ज्ञान व दर्शन भी स्व-पर तक और है
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हे प्रभो ! स्व पर प्रकाशक ज्ञान-दर्शन सम्पन्न होते हुए आप पराश्रित नहीं हैं | अपने वस्तु स्वभाव का परित्याग कर पर पदार्थों को प्रकाशित नहीं करते और न वे पदार्थ ही आप रूप होकर प्रकाशित होते हैं । वे सर्वथाभिन्न ही रहते हैं । यह नहीं हैं कि पर पदार्थों के प्रकाशन में आप उनका आलम्बन लेते हों । अपितु जिस प्रकार स्वावलम्बनपूर्वक निज स्वरूप को प्रकट करते हैं उसी प्रकार निज स्वभावनिष्ठ रहकर ही पर पदार्थ प्रकट प्रकाशित होते रहते हैं । आपतो सतत, सदैव अपने स्वस्वभाव निष्ठ होकर ही स्व- पर ज्ञाता द्रष्टा रहते हैं || १९ ॥
क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन व्यवहार नयापेक्षा पराश्रय से प्रवर्तन करते हैं । परमार्थ दृष्टि से अर्थात् निश्चय नय से तो ये भी निजात्मतत्त्व में सन्निहित हो स्वाश्रयी ही होते हैं । कारण कि उनका दर्शन- ज्ञान, क्रम से क्रियाकारी होते हैं । अर्थात् प्रथम दर्शन और पुनः ज्ञान की प्रवृत्ति होती है । परन्तु हे जिनेश्वर ! आपकी सर्वज्ञावस्था में दर्शन और ज्ञान युगपत प्रवर्तते हैं । अतः आपका प्रवर्तन अपने ही ढंग का अनोखा है || २० ||
यदि सर्व व्यापी आपका ज्ञान दर्शन स्वरूप है तो भी अपने ही आत्मस्वभाव में निष्ठ रहता है । अतः स्व पराश्रयता रूप उभव- शक्ति विरोध को प्राप्त नहीं होती । वह उभय रूप ही प्रतिभासित होती है ।। २१ ।।
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