________________
चतुर्विंशति स्तोत्र
अपने पूर्ण ज्ञान द्वारा स्वभाव से क्रमाक्रम भावों से निर्मित वस्तु का सम्यक् अवलोकन किया है । स्वभाव कभी भी स्वभावी से भिन्न नहीं हो सकता | अतः वस्तु तत्त्व प्रकृति से ही द्वयात्मक है तो वह अपने स्वभाव को क्या छोड़ती है । आपका शुद्धात्म स्वरूप भी वैसा ही है तो स्वभाव क्यों छोड़ें? अर्थात् नहीं त्याग सकते ।। १४ ।।
एक ही बस्तु में एकानेक रूप दो शक्तियों का कारण एक ही नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य-कारण भाव सिद्ध नहीं होगा | इसीलिए है- जिन आपके मत में आपने स्व और पर की अपेक्षा दो भिन्न कारण सुनिश्चित किये है । एकत्व, अखण्ड स्वभाव की सिद्धि में स्वयं द्रव्य है और अनेकत्व की प्रतीति में परभावों की अपेक्षा है । अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से एक अखण्ड पना सिद्ध होता है और पर्यायार्थिक नयापेक्षा अनेकफ्ना प्रसिद्धि को प्राप्त होता हैं यही वस्तु स्वभाव है | एक कारण है तो दूसरा कार्य । इस प्रकार उभय स्वभाव को लिए ही वस्तु स्वरूप उत्कृष्टपने से प्रकट होती हैं ||१५||
हे देव! ज्ञान पना आपसे भिन्न नहीं है । तथा उसी प्रकार ज्ञानशक्ति में भेद स्वरूपता भी स्वयं नहीं है | अपितु केवल ज्ञान तो शुद्ध चिच्चमत्कार स्वरूप एक ही है । उसमें पर पदार्थ स्वयं झलकते हैं । इसी अपेक्षा से वह अनेक भेद रूप प्रतीति होती है | अतः पर रूपता कारण हैं | पदार्थों की विचित्रता अनेक रूपताओं का उदय करती है ।। १६ ।। स्व और पर ये उभयरूपता आपके निर्मल, स्वच्छ ज्ञान की आभा में प्रतिविम्बित होती रहती है । इस योग्यता से आपकी अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान रूप शक्तियों का प्रकट अवभासन होता है । क्योंकि आप उसी प्रकार अन्तरंग-अन्तर्मुखी और वहिर्मुखी दृष्टि का साक्षात् अनुभव करते हैं । आपका क्षायिक ज्ञान-दर्शन रूप विक्रम तद्रूप ही है ।। १७ ।।
१४६