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चतुर्विंशति स्तोत्र
यदि कहा जाय कि पर को एकान्तरूप से जानता नहीं है तो ज्ञेयों के अभाव से सर्वज्ञता नहीं बन सकेगी । क्यों कि "सर्व जानातीति सर्वनः" जो स्व-पर दोनों को जानता है वही सर्वज्ञ है । वह भी स्व पर का एक हो समय में ज्ञाता होना चाहिए 1 केवल ज्ञान में अशेष पदार्थ अपनी-अपनी अनन्त पर्यायों से युक्त एक समय में केवल ज्ञान के विषय होते हैं । यह सिद्ध नहीं होगा । फिर सर्व ज्ञाता-दृष्टा पने का ही अभाव हो जायेगा, जो प्रत्यक्ष बाधित है । अतः हे देवाधिदेव! आप स्व-पर के द्रष्टा व ज्ञाता हैं ।। १० ।।
पर द्रव्यों का संवेदन मात्र ही ज्ञान की स्थिति का कारण नहीं है अपितु उसी की स्वभाव शक्ति ही ज्ञानोत्पत्ति की सहकारी है । क्यों कि स्वभाव से ही ज्ञान का लक्षण स्व-पर प्रकाशक है । यदि ऐसा नहीं स्वीकृत किवा जाय तो पर द्रव्य स्वरूप कर्म किसके आवरक होंगे ? उस स्व पर प्रकाशकता को ही आवृत्त करते हैं । उनकी निवृत्ति के उद्यम से वह योग्यता प्रकट प्रकाशित होती है । यथा आकाश प्रदेश पर मेघाच्छन्न हो जाये तो रविरश्मियाँ न तो स्वयं की दर्शक होती हैं न पर की | अतः जिस प्रकार प्रभाकर स्वभाव से ही स्व पर प्रकाशक योग्यता से सम्पन्न होने से ही पर रूप मेध से आच्छादित होता है उसी प्रकार आत्मा अपने स्व-पर प्रकाशक ज्ञानोपयोग युक्त होने से ही पर रूप जड़ात्मक कर्मों से आवृत्त होती है । आवारक कर्म पटल के मेघ समान विलीन होते ही अपने निजस्वभाव-स्व-पर प्रकाशकता से प्रकट दैदीप्य मान हो सर्वाङ्ग ज्ञान ज्योति प्रकट प्रकाशित होती || ११ ||
पर पदार्थ के विषय में परामर्श-विचार करने वाला अपने स्वयं के अभ्युदय का त्याग नहीं कर देता । मात्र पर का आश्रय लेने से निज शक्ति का अभाव नहीं, अपितु अभ्युदय ही होता है । स्थिति तो यह कि चेतन शक्ति वास्तव में स्व-पर प्रकाशक ही होती है | यदि ऐसा नहीं हो तो आक्रमण कर्ता अपने शत्रु, विरोधी पर किस प्रकार हमला-चढ़ाई कर सकेगा? शत्रु