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चतुर्विशति स्तोत्र शरीर है, इस प्रकार की शुद्ध ज्ञान चेतना एक रूप होकर अनेक रूप मा होती है । कारण कि स्वयं अपने स्वरूप के प्रकाशन के साथ अन्य शेष द्रव्यों का भी प्रकाशन करती है एक ही समय में एक साथ । अतः द्रव्यापेक्षाक और सम्पूर्ण लोकालोक को प्रकाशित करने से अनेक रूप भी सिद्ध होनी है | पूर्ण ज्ञान - केवलज्ञान में क्रमिक परिणमन नहीं होता । एक ही समय में अनन्तों स्व-पर द्रव्यों को प्रकाशित करती है | समय भेद का अभाव होन से ज्ञान भी अभेद रूप से प्रतिभासित होता है || २0 ।।
हे जिनेश्वर! आपका आवरण रहित दुर्द्धर ज्ञान-केवलज्ञान, अनन्त वीर्य की शक्ति भी निरंतर अपने बल को वृद्धिंगत करते हुए अन्त रहित हो जाती है । इस प्रकार आपकी अचिन्त्य क्षायिकीय शक्ति प्राप्त ज्ञान प्रभा-ज्योति अविचलरूप से ज्योतिर्मय होती हुयी तटस्थ होकर प्रतिभासित होती रहती है । न केवल अपने ही स्वरूप को प्रकाशित करती है, अपितु लोकालोक के हृदयस्थल का भेदन करती हुयी उन सकल पदार्थों को भी सपर्याय प्रकाशित करती है | हृदयस्थल विदारन का अर्थ समस्त जड़-चेतन को भी अपने में समेट कर प्रकाशित होती है ॥ २१ ।।
वाह्य समस्त ज्ञेय यद्यपि अपने-अपने स्वभाव में नियत हुये सुव्यवस्थित रहते हैं । परमविशुद्ध ज्ञानालोक में अवभासित होकर भी वे ज्ञान में अनेकपना लाने में निमित्त मात्र ही होते हैं । नानारूप विश्व प्रकाशन की पूर्ण सामर्थ्य होने पर भी उन्हें प्रकाशित कर स्वयं नानारूप नहीं होता । परिणमनशील स्वभाव में वे स्वाभाविक रूप में झलकते रहते हैं । वास्तव में निश्चयनय की अपेक्षा वह केवलज्ञान मात्र अपना ही (निजात्मा का ही) द्योतक रहता है || २२ ।।
हे जिनदेव! आपका केवलज्ञान असहाय, आत्मोत्य, क्षायिक रूप होने से निजस्वभाव रूप एक ही होता है । नाना प्रकार के अनेक पर्याय भेदों से विभक्त पर पदार्थ इसमें अवभासित होने पर भी उनके द्वारानाना रूप नहीं होता क्यों कि स्वयं समर्थ होने से पर की अपेक्षा से पूर्ण रहित