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- चतुर्विंशात स्तोत्र आपके परमोकृष्ट ज्ञान की स्वच्छता के विषय होकर भी चे आपरूप नहीं होते और न ही आपके ज्ञानस्वभाव को अपने रूप परिणमा सकते हैं | अपने-अपने स्वभाव में रहते अवश्य हैं ।। १७ ।।
हे भगवन् आपके सिद्धान्त में वस्तु एकान्त रूप से सत् मात्र भी नहीं है । क्योंकि कूटस्थ नित्य में सर्वथा परिणमन का अभाव है । अतः निश्चय से अपने ही आकार से कारक उत्पाद और व्यय करते हैं । क्यों कि परिणमनशील होने पर ही हानि-वृद्धि रूप संगति बैटती है । अन्यथा निश्चय नय और व्यवहार नय समाहार किस प्रकार होगा? नहीं होने पर बस्तु स्थिति किस प्रकार हो सकेगी? क्यों कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य मय ही वस्तु, तत्त्व या पदार्थ का लक्षण है । यह व्यवस्था मुख्य और गौण धर्मों से ही व्यवस्थित होना संभव है । अतः सन्मात्र द्रव्य का लक्षण निश्चय नय का विषय है और उत्पाद-व्यय ध्रौव्यता रूप द्रव्य का लक्षण भेद विवक्षा में व्यवहारनय ही सिद्ध कर सकता है |॥ १८ ॥
शुद्ध ज्ञान चेतना भी परिणमनशील है । यह स्वभाव सहज सिद्ध है । पर निमित्तों से प्रभावित होकर यह उनसे उत्पन्न नाना विकल्पजालों से परिणमन करती है, अनेक रूप दृष्टिगोचर होती है । अर्थात् क्षायोपमिक ज्ञान होने के कारण यह पराश्रय को स्वीकार कर लेती हैं, तथा नाना रूपों में विभाजित हो जाती हैं, नाना जीवों के नाना प्रकार के क्षयोपशम होने से कुछ न कुछ अंशो में वहाँ मोहराज का प्रभाव जीवित रहता है । मोह रूप कालुष्य के नष्ट हो जाने पर वह चिन्मय ज्योति वाह्य कारणों में विचरण करने पर भी अर्थात् प्रद्योतन विषय बना कर भी उनके द्वारा नानारूप नहीं होती विभाजित नहीं होती क्यों कि उन्हें ग्रहण ही नहीं करती । कारण के अभाव में कार्य नहीं होता | कारण रूप मोह का नाश हो जाने से मात्र उन्हें अपनी एक मात्र प्रभासित शक्ति से भासमान करती है ।। १९ ।।
विशिष्ट, शुद्धरूप ज्ञान शक्ति सर्वथा ऐक्यपने को भी प्राप्त नही होती । कचित् नाना रुपता का भी वहन करती है | चिन्मयता ही जिसका
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