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चतुर्दिशति स्तोत्र को ज्ञात कर ही तो उसके साथ समर करने को उद्यत होता है । इसी प्रकार ज्ञान भी अपने प्रतिपक्षी ज्ञानावरणी जड़ कर्म को पहिचान कर उस धावा करता है । संयमरूप शस्त्र का वार कर उसे परास्त कर देता है । तथा शुद्धावस्था प्राप्त कर लेता है || १२ ।।
विषय सेवन करने में अनुरक्त पुरुष पंचेन्द्रिय विषयों का सेवन करता है | अर्थात् उनका स्पर्शन करता है, ग्रहण करता है । परन्तु विषय विरक्त संयमी मान उनका दर्शक ही रहता है. कईभोसा नहीं होता । ये दोनों ही धर्म-जानना और देखना क्रिया सदैव एक ही समय में होती रहती हैं | किस प्रकार ? जिस प्रकार जिन वस्तुओं के राग होता है, उन्हें जीव ग्रहण करता तो उसी काल में प्रतिकूल विषयों के प्रति द्वेष भी होता ही है । जिनके प्रतिरागभाव होता है उसमें निमग्न होता है और जिन्हें अनिष्टकारक समझता है, उनके प्रति आकर्षित होता है || १३ ||
हे स्वामिन् ! अंशुमाली (सूर्य) स्वयं अपने स्वाभाविक प्रकाश से अपने साथ विश्व के पदार्थों का प्रकाशन करता है तो इससे उसके विराट प्रकाशन शक्ति क्या क्षति होती है ? कुछ भी नहीं होती । वह तो अपनी स्वाभाविक राश्मयों का प्रसार करता है, यदि प्रकाश्य पदार्थ अपने स्वभाव से उसमें प्रकाशित होते हैं, तो होते रहो, इससे उसे कोई क्षति नहीं होती अपितु उसकी गरिमा ही प्रकट होती है | इसी प्रकार अनन्तज्ञान के स्व-पर प्रकाशक विराट ज्योति में अशेष जगत् एक साथ एक ही समय में प्रविश्य हो प्रकाशित होते रहें तो इसमें क्या आपत्ति है? कुछ भी नहीं । प्रकाश प्रकाश रूप और प्रकाश्य-ज्ञेय पदार्थ स्वामी रूप प्रकाशित होते हैं तो होने दो | इससे प्रकाशकों की कार्यशीलता में कुछ भी कमी नहीं होती, अपितु उसकी उदारता वैभव ही विशेषरूप से प्रकट एवं प्रभावक ही होता है ।। १४ ।।
हे देव! समस्त तीनों लोकालोक स्वयमेव प्रकाश्य होते हैं अथांत् आपके प्रकाश से प्रकाशित होते हैं तो होते हैं, इससे आपकी-क्या क्षति
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