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चतुर्विंशति स्तोत्र -
आपका ज्ञाता दृष्टा स्वभाव कर्ता, कर्म आदि भेद रूप कारकों की अपेक्षा नहीं रखता क्योंकि भेद अनित्यता का सहार्थी है । आपका ज्ञान दर्शन तो नित्य एक रूप प्रवर्तक है । अर्थात् एक साथ क्रियाशील होता है । क्योंकि वह स्वयमेव स्वभाव से अपनी दृशि, ज्ञप्ति क्रियामय टकोत्कीर्ण (उकेरे चित्र ) के समान रहा है। काग के साथ अभिन्नता है । स्वभावस्वभावी से अविच्छिन्न रहता है । आत्मा स्वभावी और दृशि ज्ञप्ति स्वभाव हैं । इनमें प्रदेशभेद नहीं हैं ।
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हे भगवन! आपके दर्शन और ज्ञान में निरीक्षण और ज्ञापक क्रिया में बाह्य पदार्थ निमित्त कारण नहीं हैं, अपितु उनकी स्वाभाविक निर्मलता ही हेतु हैं । क्योंकि बाह्य वस्तुओं के उपस्थित नहीं होने पर भी ये दृशि, ज्ञप्ति शक्तियाँ स्वयं देखने जानने की योग्यता से सम्पन्न ही हैं । वस्तु स्वभाव सापेक्ष नहीं होता || १६ |
वे देखने, जानने की शक्तियाँ कभी भी भिन्न भिन्न नहीं हो सकतीं । क्यों उनकी क्रियारूप परिणति की भिन्नता क्रमिकता के कारणभूत दर्शनावरण व ज्ञानावरण कर्म आपने सर्वथा नष्ट कर दिये हैं । अतः क्षायिक भाव को प्राप्त वे स्वयमेव युगपत ही क्रियाकारी होती रहती हैं ।। १७ ।।
दृश्यमान एवं प्रमेय रूप पदार्थों को विलोकन, और ज्ञात करती हुयी आपकी दर्शन व ज्ञान शक्तियों स्वभाव से स्वयं प्रवृत्ति कर अपने में अन्तर्लीन कर वस्तुओं को झलकाती हैं । अर्थात् विषयभूत बना लेती हैं । आप तो मात्र दृष्टा ज्ञाता बने रहते हो। यह विलक्षण दर्शनज्ञान शक्तियाँ बिना इच्छा के अपना कार्य करती हैं ॥ १८ ॥
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