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चतुर्विशति स्तोत्र
कारण के अभाव में कार्य नहीं होता । अतः अमर्याद रूप से उपयोग नित्य ही जाग्रत और कार्यरूप प्रवर्तन करता है ॥ १०॥
आपके अनन्तदर्शन व अनन्तज्ञान युगपत् प्रवर्त होने में क्यों समर्थ हैं ? आचार्य श्री कहते हैं, हे भवगन् आपका वीर्य भी पूर्णता को प्राप्त कर अनन्तबल रूप हो गया है । अतः निरन्तराय उपयोग का कार्य चलता ही रहता है । तनिक भी उनके कार्य में खण्डना नहीं होती ।। ११||
हे जिन! आपके अनन्तटन और अनन्तजार पूर्ण निकामिल हैं ! अन्न उनके अन्तर्गत अशेष संसार निहित हो गया । अर्थात् उनमें एक साथ झलकते हैं । यही उनका समाहित हो जाना ही समाना है । अशेष के दर्शन, ज्ञान हो जाने से आप पूर्ण निराकुल होते हुये नित्य एकान्तपने से सुख में ही निमग्न रहते हो । देखने, जानने की अभिलाषा आकुलता की उत्पादक है, पर आप इच्छा विहीन हैं क्योंकि कुछ भी दृश्य व ज्ञातव्य ही शेष नहीं है । अतः नित्य निरंतराय सुखी रहते हैं || १२ ॥
आप दर्शन ज्ञान स्वरूप हो गये अतः प्रमादी नहीं होने से नित्य जागरूक व सुखी रहते हो ।आपका अनन्तवीर्य भी प्रकट होने से नित्य-निरन्तर दृशि, ज्ञप्ति किया सम्पन्न रहता है । अनन्त बल के रहने से कभी भी श्रमित नहीं होते, इससे प्रमाद छू नहीं पाता । अतएव देखने और जानने में अनवरत प्रवृत्त रहते हो । निश्चय से अपने ही स्वरूप के दृष्टा, ज्ञाता हो और व्यवहार से अखिल विश्व के || १३ ॥
आपका दृष्टा साता पना तनिक भी नश्वर नहीं है | सतत क्रिया शील रहते हैं | वस्तु का स्वभाव ज्ञाता दृष्टापने से अवस्थित रहता है । अर्थात् आत्मा की सत्ता ज्ञाता दृष्टापने से ही है । जो क्रिया कारी होता है वही पदार्थ है । क्रियाशीलता ही वस्तु का अस्तित्व स्थिर रखती है 1 जानना देखना क्रिया है ॥ १४ ।।