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चतुर्विंशतिस्तोत्र
और चिर संतान चलाने वाली ज्ञानाग्नि में ईंधन ( जलावन) बना दिया । यहाँ तक कि अपनी चिरन्तन आत्मा को परम शुद्ध बनाने की सफलता में शरीर को भी कृष्ट कर दिया एवं अपनी शुद्धत्मा की पुष्टि के लिए ही एक मात्र प्रयास किया । शरीर को चेतना से सर्वथा भिन्न जान उसको तपाग्नि से कृश बनाया । तथा स्वशक्ति को परिपुष्ट किया || ४ ||
अशेष त्रैलोक्य को ज्ञात करने से परिपुष्ट हुयी शुद्ध चेतना रूप धातु आत्मा द्वारा जो आपने में ही ही रहते हैं। अफि का प्रकटी करण होता है । वे ही उसमें रमणशील हुए अतुल्यबल को अवलोकन करते हैं । अर्थात् जो सर्वज्ञ है, वही अनन्तवीर्य सम्पन्न हो अनन्त सुख में निमग्न रहता है। आपका यही प्रकट स्वरूप है ॥ ५ ॥
सर्वज्ञ जिन अनन्तबल सम्पन्न हो निज स्वभाव को अनुभव में लाते हुए अर्थात् स्वभावरूप में तल्लीन रहते हैं । आप भी उस अनन्तबल से युक्त हो, अतः निजस्वरूप लीन हुए भी, अधिर नाशवान संसार की सम्पूर्ण असार परिणतियों को अवलोकन करते हो । अभिप्राय यह है कि अतीत कालीन पर्याये विनष्ट हो गयीं, भविष्य कालीन अभी प्रकट हैं ही नहीं, तो भी आप उन समस्त जीर्ण-शीर्ण पर्यायों को अन्तर्निहित किये अशेष संसार को एक साथ प्रत्यक्ष दृष्टिगत कर रहे हो । अर्थात् निरीक्षण करते हो || ६ ||
युगपत् सम्पूर्ण द्रव्य, गुण, पर्यायों से युक्त पदार्थों को आपने ज्ञात कर लिया । इसलिए आप अक्षय तृप्ति के धनी हो गये । जिस क्षण कुछ ज्ञात करने की अभिलाषा होती हैं, तो असन्तोष बना रहता है, उसे अवगत करने की उत्सुकता बनी रहती है, परन्तु आप अपने स्वभाव से ही परिपूर्ण हो, अशेषज्ञ होने से कुछ भी ज्ञातव्य है ही नहीं । यही कारण है कि आप पूर्ण निरुत्सुक, सन्तुष्ट प्रतिभाषित होते हो ।। ७ ।।
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