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चतुर्विंशतिस्तोत्र
पाठ- ११
संसार में मोहरूपी कृष्णतम व्यापिनी रात्रि चारों ओर विस्तृत है । इसने अपने अज्ञानभाव से सम्पूर्ण विश्व आवृत कर रक्खा है । हे आत्मज्ञ देव! आपने अपने इष्ट आत्मीय परिणमन द्वारा इसे सम्यक् दृष्टि से पहिचाना और नष्ट किया । भावार्थ यह है संसार के अज्ञानी प्राणी इस मोहरूप सेना से परास्त हो इसके आधीन हो रहे हैं, परन्तु आपने अपने आत्मीय पराक्रम से उसे परास्त कर दिया || १ ||
जिस कर्ममल को पूर्व अज्ञानदशा में अत्यन्त लोलुपता से अर्जित किया था जो आत्मस्वरूप का विरोधी बना और उसी का घातक सिद्ध हुआ ! आपने उस पाप-पुण्य रूप समस्त कल्मष को अपनी अतिविशुद्ध चैतन्य के उद्गारों से जीर्ण जर्जरित कर दिया । अर्थात् कर्मकालिमा की स्थिति और अनुभाग शक्ति को निःशक्त निर्बल बना दिया || ||
संसारी प्राणी पदार्थों के प्रकाशन को प्रदीप का प्रयोग करते हैं. जब कि प्राणीमात्र ज्ञानरूपी अग्नि प्रकाश से सम्पन्न है । परन्तु अज्ञानवश निज ज्योति को भूल पर में भटक रहे हैं । वास्तविक प्रकाश भौतिकता में नहीं, अपितु आध्यात्मिकता में है और वह स्वयं हर क्षण अपने ही पास है । हे जिन ! आपने इस तथ्य को समझा और उसके विशेषज्ञ होकर उसी को प्रकट प्रकाशित किया । निज वस्तु का परित्याग कर पर वस्तु में कौन तत्त्वज्ञ प्रवृत्ति करेगा? कोई नहीं । अतः आपने अपनी आध्यात्मिक निज ज्ञानकला की ज्योति जलायी । तथा उसी प्रकाशपुञ्ज को भोले प्राणियों को प्रदान करते हो । अर्थात् सबको अपनी अपनी ज्ञान चेतना जाग्रत करने की प्रेरणा सदुपदेश देते हैं ॥ ३ ॥
हे निस्पृह ! आप संसार के सम्पूर्ण क्रिया-कलापों को अपनी अनन्त
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