________________
=== चतुर्विशति स्तोत्र ) रूप से नित्यपना या अनित्यपना कदाऽपि सिद्ध नहीं होता है । आप अपनी अनेकान्त दृष्टि से उभय धर्मात्मक वस्तु को उभयात्मक ही अवलोकते हो। अतः आप स्वयं भो आपंक सिद्धान्तानुसार नित्य सिद्ध या अर्हन्त होते हुए भी अनित्य धर्म को प्राप्त होते हैं । अथवा यों समझें केवलज्ञान स्वभाव से एक रूप नित्य हो और षड्गुणी हानिवृद्धि की अपेक्षा अनित्य स्वरूप भी हो क्योंकि द्रव्य नित्य होकर भी पर्यायपेक्षा अनित्य भी है || १९ ।।
आपने अपने सिद्धान्त में वस्तु स्वभाव को प्रतिक्षण उत्पाद् व्यय, और धीय रूप निरूपित किया है । ये तीनों धर्म या स्वभाव एक ही समय में एक साथ रहते हैं । जिस क्षण उत्पाद हुआ, उसी क्षण में व्यय है और तत्क्षण ही ध्रौव्यपना है । यही सिद्धान्त द्रव्य और पर्याय रूपता को सिद्ध करता है । पर्याय दृष्टि से उत्पाद और व्यय की व्यवस्था और द्रव्यत्व दृष्टि से ध्रुवता की सिद्धि होती है । जो अस्त-नष्ट होता है वही उत्पन्न होता है तथा जो उत्पन्न होता है, वह नाश को प्राप्त होता है और दोनों का आधार भूत ध्रौव्य-द्रव्य है । यथा मृत्पिण्ड है पिण्ड का अभाव हुआ और घट पर्याय की उत्पत्ति दोनों में समय भेद नहीं हुआ तथा दोनों अवस्थाओं में मिट्टी व्याप्त है जो ध्रुवता की प्रतीक है । प्रत्येक पदार्थ में यह प्रक्रिया होती ही रहती है || २० ॥
पदार्थों में अभाव और सद्भाव पर चतुष्ट्य और स्व चतुष्ट्य की अपेक्षा से परिणमित होते रहते हैं । अर्थात् भाव (सद्भाव) अभाव पूर्वक और अभाव सद्भाव की अपेक्षा रखता है । क्योंकि कि पर्यायदृष्टि से ये दोनों स्वभाव परिणमनशील हैं | यथार्थ में शुद्ध निश्चय की अपेक्षा तो द्रव्य सत् रूप ही है । सर्वज्ञ के ज्ञान में ऐसा ही वस्तुस्वरूपता प्रकट भासती है || २१ ।।
हे भगवन्! वस्तु की समग्रता हेतु होकर भी हेतुमान भी समग्रता है । अर्थात उत्तरोत्तर पर्यायों में पूर्व पर्याय हेतु और उत्तर पर्याय हेतुमान होती है । अभिप्राय यह है कि पर्याय अपेक्षा साधन साध्य होता जाता
=
१२४