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चतुवैिशतिस्तोत्र
धर्म अविच्छिन्न रूप से रहते हैं । किन्तु विवेचना के समय विवेचक के अभिप्राय के अनुसार एक मुख्य और दूसरा गौण हो जाता है, नष्ट नहीं होता । विवक्षा व अविवक्षानुसार प्रधानता व अप्रधानता से रहते हैं । कोई भी धर्म व शक्ति सर्वथा नष्ट नहीं होती ॥ १६ ||
हे जिनेश्वर आपने वस्तु के अभावरूप धर्म का कथन करते हुए अभाव को चार प्रकार का बतलाया है । १ प्रागभाव, २ प्रध्वंशाभाव ३. अन्योन्याभाव और ४ अत्यन्ताभाव | ये अभाव भी आपके सिद्धान्त में अपनी-अपनी सत्ता रूप से सद्भावपने को लिए हुए हैं क्योंकि सत् का कभी अभाव नहीं होता है और असत् का उद्भव नहीं होता । ये सभी अभाव एक ही वस्तु में अपेक्षाकृत समाहित रहते हैं। इस तत्त्व का रहस्य अवगत करना कल्याणकारी है । आपका स्वभाव भी अर्थात् स्वरूप भी अभाव को लिए सद्धाय रूप सिद्ध होता है । यथा जड़ता का अभाव चेतना का सद्भाव सिद्ध करता है | आप चिद्रूप -चैतन्य प्रभावी हैं तोकि जड़ता आपको ए नहीं पाती । आप में सभी अभाव मौजूद हैं । यथा संसार दशा सिद्धत्व नहीं था अभी प्रकट हुआ है | वह शुद्धावस्था का प्रागभाव हुआ । संसार दशा विनष्ट हुयी मुक्तावस्था प्राप्त यह प्रध्वंशाभाव है। जड़ में चेतना नहीं और चेतना में जड़ता नहीं यह अन्योन्याभाव है । कर्म कालिमा सदैव को पृथक् हो गयी यह अत्यन्ताभाव है । ये सभी अभाव आपकी सद्धस्था के ही ज्ञापक हैं। क्योंकि कि यह नहीं वही नहीं तो हैं क्या ? अपनी स्वभाव सत्ता निहित चेतन द्रव्य || १७ ॥
पर्यायनय या व्यवहार नय की अपेक्षा आप अनेकरूप होकर भी निश्चयनय या द्रव्यार्थिक नय से एक रूपता को धारण करते हो क्योंकि वस्तु स्वभाव भेदाभेदात्मक ही है । इस प्रकार शुद्ध निश्चयनय से एक चैतन्य स्वभावी होकर भी भेददृष्टि से अर्थात् व्यवहार नय से अनेकता को प्राप्त करते हो । अतएव वस्तुतत्व स्वभावतः एकानेकात्मक हैं ।। १८ ।।
साक्षात् संसार अनित्य दृष्टिगत हो रहा है । परन्तु आपके सिद्धान्त को प्राप्त होने पर अनित्यत्व में नित्यत्व प्रतिबिम्बित होता है । क्योंकि एकान्त
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