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= चतुर्विंशति स्तोत्र है | यथा प्रभो आप प्रारम्भ में अर्हत अवस्था में जिस प्रकार अनन्त चतुष्ट्य के धनी थे उसी प्रकार उत्तरवता सिद्धावस्था में भी हो । ता भी एक मात्र ज्ञायक स्वभाची ही चैतन्यमय हो ॥ २२ ।।।
कार्य कार्यरूपहै, कारण कारणरूप । कार्य साधन नहीं होता और न ही साधन साध्य । विवक्षा से दोनों अपने अपने स्वरूप निष्ठ हैं । परन्तु उभय अवस्था में तत्त्व एक रूप प्रतिभासित होता है । यथा आर्हत दशा और सिद्धावस्था भिन्न-भिन्न होने पर भी आपका शुद्धात्मा उभयत्र एकरूप ही प्रकट भासता रहता है । अतः आत्मा एक मात्र चिदानन्दरस निर्भर अखण्ड एक चिद् पिण्डरूप ही है । हे जिन! आप इसी चित् पिण्ड अखण्ड रूप से अवस्थित रहते हो ॥ २३ ॥
परिपूर्ण हुआ भी पदार्थ रिक्त होता है और रिक्त होकर भी पुनः परिपूर्ण होता है, पुनः पूर्णता प्राप्त कर कुछ-कुछ क्रमशः खाली होता है और रिक्त हुआ पुनः परिपूर्णता प्राप्त कर लेता है । जल कल्लोल वत् अर्थ पर्याय षड्गुणी वृद्धि और षड्गुणी हानि के रूप से पदार्थ में वृद्धि-हानि रूप परिणमण कराती रहती हैं । यह भी वस्तु में रहने वाले अगुरुलघु गुण के कारण स्वभाविक रूप से होती रह कर वस्तु को यथा तथा ही बनाकर रखती हैं || २४ ।।
हे जिन! आपकी भक्ति प्रसाद से मेरा आत्मा विज्ञान धन स्वरूप निजभाव को प्राप्त करने के लिए निरन्तर अश्रान्त हुआ उद्यमशील रहे । आचार्य श्री चाहते हैं कि जिनदेव स्तवन के फल स्वरूप मैं सतत प्रमाद त्याग, तत्परता से अपनी ही अनुभूति में तन्मय रहूँ | तथा मेरे अन्तः करण को आपकी अनन्त गुण राशि की अनुभूतियाँ समतारस से आई करती रहें । मैं सतत अश्रान्त और अप्रमादी हो आप सदृश आत्मानन्द पीयूष से अभिषिक्त होने का सफल प्रयास करूँ यही भावना भाता हूँ || २५ ॥
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