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चतुर्विंशति स्तोत्र हे प्रभो ! आपने अपने को अपने ही द्वारा तदतदस्वभावरूप से प्रकट किया है । अभिप्राय यह है कि कर्मजन्य समस्त शुभाशुभ भावों का कर्मो के साथ नष्ट कर दिया, इससे अतत्स्वभावी हो | तथा अपने निज ज्ञान-दर्शन चेतनादि स्वभावों का कभी भी परिहार नहीं करते इससे तद्स्वभावी हो । तथाऽपि निस्वभावों में भी ज्ञान चेतना का स्वभाव स्व-पर कर ज्ञात करना है-और दर्शन का स्वभाव मात्र अवलोकन करना है । ये दोनों धर्म विरोधी होने पर भी आपमें निर्विरोध रूप से व्यवहृत होते हैं । अतः विरुद्धधर्मों को समाहार एकीकरणरूप से आप स्पष्ट अनुभव करते हो । सभी अनन्त । शक्तियाँ-धर्म एक साथ आपकी अनुभूत हो रही हैं || १३ ||
आप अपनी स्वरूपसत्ता से एक व अखण्ड हो | किन्तु उसकी स्वच्छता और निर्मलता के कारण अखिल विश्व व्याप्त हो रहा है- दर्पण समान झलक रहा है । इसी से वह सामान्यसत्ता एक रूप होकर विशेष धर्मापेक्षा असाधारण रूप से प्राप्त होती है । अभप्राय यह कि द्रव्यदृष्टि से आपका स्वरूप एक रूप है और व्यवहार दृष्टि या पर्यायदृष्टि अथवा भेददृष्टि अपेक्षा अनेकरूप प्राप्त होता है । सार यह है कि आप साधारण और असाधारण इन उभय स्वभावों से युक्त हैं || १४ ।।
आत्मतत्त्व का निज स्वरूप अनन्तधर्मों के समूह को लिए हुए हैं । एकता में यह अनेकता किस प्रकार किसके ज्ञात है ? जिन! यह वस्तु वैचित्र्य स्वभाव पूर्ण और सर्वव्यापी ज्ञान शक्ति के द्वारा ज्ञातव्य है | आपका केवलज्ञान पूर्णता लिए है अतः आप सर्वज्ञ हैं । इसीलिए इस अलौकिक वस्तु तत्त्व के ज्ञाता हैं ।। १५ ।।
आप में अन्वय-गुणधर्म और व्यतिरेक रूप पर्याय धर्म ये दोनों ही समानरूप से विद्यामान हैं | उनमें से जिस क्षण अन्वय स्वभाव का विचार करते हैं तो व्यतिरेकी धर्म छिप जाते हैं और जब व्यतिरेकी धर्म की विवक्षा होती है तो अन्वयी धर्म अन्तर्निहित ही जाता है | अभिप्राय यह है कि आपके सिद्धान्तानुसार आत्म तत्त्व अन्वय-व्यतिरेक उभय धर्मों का पिण्ड है । दोनो