________________
चतुर्विंशति स्तोत्र
= समस्त पदार्थ पर्यायों की अपेक्षा अनेकरूप-भेदरूप हैं तथा वे ही द्रव्यार्थिनय की दृष्टि से एक रूप है । आपने स्वयं अपने आत्मतत्त्व को उभयनयों की अपेक्षा एकानेक रूप से अवगत किया है । इसलिए तो आपने तत्त्व स्वरूप ऐसा ही इस प्रकार प्रतिपादित किया है । क्योंकि आप भी अपने अनन्तगुण पर्यायों रूप केवलज्ञान की व्यापकता से अखिल पदार्थों में एक साथ एक समय में ही व्याप्त होते हो । अतः ज्ञानापेक्षा आप सर्व व्यापी होते हुए प्रवर्तते हो ॥ ५ ॥
अनन्त पदार्थों और उनकी अनन्त पर्यायों में स्वभाव से प्रवर्तने के उल्लास-आनन्द से परिपुष्ट होकर भी आप अखण्ड एकरूप अनाकुल, शुद्धज्ञानरूप महानिधि के धनी प्रतिभासित होते हो । हे जिन यह आपके अखण्ड ज्ञानघन स्वरूपी महिमा अत्यन्त विलक्षण व अद्वितीय है ।। ६ ।।
अनादिकालीन अज्ञान की असीमित मोहवाहिनी में बहते हुए एकान्तवादी वस्तु को अक्रमित-कूटस्थनित्य कहते हैं, वे पर्यायरूपता से अनभिज्ञ हैं । अन्य उसे क्रमिकरूप क्षणभंगुर प्रतिपादित करते हैं । एक क्रमपक्ष का लोप करते हैं तो दूसरे अक्रम का अभाव बतलाते हैं | परन्तु वस्तु स्वरूप क्रमाक्रम रूप हैं । हे जिन ये दोनों ही मिथ्यावादी स्व और पर घातक हैं | आपके अनेकान्त सिद्धान्त में उभय धर्म का निरूपण है, जिससे इन दोनों ही पक्षों का खण्डन हो जाता है और यथार्थ वस्तु स्वरूप प्रकट हो जाती है ।। ७ ।।
प्रत्येक पदार्थ अनन्तगुण धर्मो के साथ सहभावी रहता है | आत्म द्रव्य भी अनन्त धर्मात्मक है । गुण गुणी से सत् अभिन्न रहते हैं | कहा भी है "सहभावीगुणाः" | परन्तु क्रमिक होने पर भी पर्यावों का परिणमन क्रम से होता रहता है । इसी पर्याय शक्ति द्वारा गुणों की अभिव्यक्ति और स्थिति निरन्तर बनी रहती है | क्योंकि एक गुण की पर्याय अन्यगुण की नहीं होती । यही कारण है कि पर्यायार्थिक दृष्टि से भित्र रूप प्रतीत होने पर भी द्रव्य द्रव्यार्थिक दृष्टि एक ही होता है अन्य पदार्थरूप नहीं होता |
१२॥