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चतुर्विशति स्तोत्र ===
पाठ-१२ प.पू. चा. चूडामणि आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी गुरुदेव इस स्तोत्र के प्रारम्भ में श्री जिनदेव को नमस्कारात्मक प्रगलाचगा कर रहे हैं | रागादि अठारह दोषों का परिहार करने वाले, दोषजित, अनेकान्त सिद्धान्त के प्रतिपादक अनन्त चैतन्य आत्मा की चित् शक्ति को स्पष्ट करने वाले, आत्मप्रकाश में तल्लीन, ज्ञान ज्योति से ज्योतिर्मय जिनेन्द्र प्रभु को नमस्कार करता हूँ || १ ||
हे प्रभो ! आप पर्यायदृष्टि से अनेक आर्मीय शक्तियों के पुञ्जरूप होने से अनेकरूप हैं ऐसा मैं मानता हूँ | परन्तु अभेद दृष्टि से विचार करने पर आप निराकुल एक ज्ञान स्वरूप ही हो । क्योंकि आप ज्ञान धन स्वरूप होते हुए ही साक्षात् सर्वदा, सर्वत्र, प्रत्यक्ष प्रतिभासित होते हो । अतः चेतन स्वभावी मात्र एक स्वरूप ही हो ।। २ ।।
___ अतः विहारकाल में आप अपने ज्ञानस्वरूपता की द्रव्य पर्यावों में सम्पन्न ही प्रत्यक्ष होते हैं । अर्थात् ज्ञान की पर्यायों से युक्त हैं । ज्ञान की ज्ञातृत्व शक्ति से परिपूर्ण हैं अतः आप ज्ञान के ईश, अधिपति हो । अन्यथा देशना के प्रामाणिक कर्ता नहीं हो सकते । आप अशेष के ज्ञाता हो । अतः आपकी देशना प्रतिपादित तत्त्व यथार्थ, समीचीन और पूर्ण प्रामाणिक है 1 अतः आप ही ज्ञानेश्वर-सर्वज्ञ हो || ३ ।।
आप स्व स्वरूप की अपेक्षा अर्थात् स्वचतुष्टय द्रव्य क्षेत्र, काल और भावापेक्षा सत् स्वरूप हो, तथा पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप पर चतुष्ट्य अपेक्षा असत् रूप भी हैं । अर्थात् एक गुण अन्य रूप नहीं होता | जिस क्षण आप ज्ञान गुण अपेक्षा सर्वज्ञाता हैं तो प्रमात शक्ति सहचर होकर भी दृशिरूप नहीं होती । अतः सत्ता-असत्ता के एक रूप होकर भी एक रूपता प्रकट झलकती है । अतएव आप ही धर्मतीर्थ के य थार्थ प्रवर्तक हैं । इसी से आप सर्वज्ञ कहे जाते हैं || ४ ||