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चतुर्विंशति स्तोत्र
अपने आत्म स्वभाव के पूर्ण और अनन्तरूप से प्रकट होने से चेतना . शक्ति भी अन्तरूप दृष्टिगत होती है । अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग एक साथ उद्दाम रूप से प्रवर्त होते हैं । अतः समस्त-अनन्त, गुण पर्याय भी उपयोग की भूमिका में एक साथ प्रतिविम्बित हो देखी और जानी जाती हैं । यह शुद्ध उपयोग का चमत्कार है कि एक भी वस्तु अनेक रूपों को लिए स्पष्ट होती हुयी नानारूपता धारण करती है । इसी चमत्कारी महिमा द्वारा आप भी अपनी अनन्तज्ञान, दर्शन शक्तियों का वहन करते हैं । अभिप्राय यह है कि प्रत्येक पदार्थ द्रव्यार्थिक नयापेक्षा एक और पर्याय अपेक्षा अनेक रूप है । भेदाभेद विवक्षा से क्षायोपशामिक ज्ञान-दर्शन इन्हें क्रमिक रूप से जानते देखते हैं परन्तु क्षायिक दशा प्राप्त होने पर क्रमिक प्रयुक्त न होकर युगपत् प्रवत होते हैं । अत: आप एक साथ भेदाभेद की ज्ञात करते हैं || ८ !
आप स्वयं एक उपयोगात्मक हो । आत्मा का लक्षण वही है | जैसा आगम है "उपयोगो लक्षणं" आत्मा उपयोग स्वरूप है, अतः एक रूप हुयी ! परन्तु वही उपयोग (चेतना) साकार और निराकार के भेद से दो रूपता को धारण करता है । ज्ञान चेतना और दर्शन चेतना, इनमें दर्शन चेतना निराकार है और ज्ञान चेतना को साकार कहा है | आप दर्शन चेतना द्वारा समस्त लोक को निर्विकल्प रूप से अर्थात् अभेदरूप से ग्रहण करते हो । क्योंकि ज्ञान दर्शन आपके एक साथ प्रवर्तन करते हैं ॥ ९ ॥
हे जिन! आप में पूर्णशुद्ध हुए ज्ञान और दर्शन, अपर्यवसान अर्थात् अनंतता लिए, अबाधरूप से नित्य प्रवर्तमान रहते हैं । कारण यह है कि आपके ज्ञानावरण और दर्शनावरण रूप आवृत करने वाले कर्मों का सर्वथा उच्छेद हो गया है ।
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