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चतुर्विंशति स्तोत्र
प्रकार प्रमेय के शून्य - अभाव होने पर प्रमाणता नहीं टिक सकती और प्रमाण नहीं तो प्रमेय का ज्ञापन किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता । अभिप्राय यह है कि आपके सिद्धान्त में प्रमेय और प्रमाण सिद्धि में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । यथा दिवस नहीं तो रात्रि का ज्ञान कैसे हो और रात्रि नहीं तो यह दिवस है यह भी कथन क्या संभव है ? नहीं है । अतः प्रमाण नहीं तो प्रमेयों का ज्ञान कौन कराये ? और प्रमेय नहीं तो प्रमाण ज्ञापकरूप क्रिया किस प्रकार करे ? ऊभय शून्यता दोष निवारण करने वाला आपका सिद्धान्त ही चिरन्तन जयशील है ॥ ९ ॥
प्रमाण और प्रमेय निश्चय से अपने-अपने आत्मस्वभाव में अवस्थित हैं । वलात् बाह्य पदार्थों का निषेध करने में प्रमाण- ज्ञान समर्थ नहीं हो सकता | वचनोच्चार के बिना भी बोध - ज्ञान का परिणमन स्पष्ट रूप से उन्हें (वाह्यार्थी को ) सम्यकू रूप से कथन करता ही है । यहां विज्ञानाद्वैत वादी मात्र ज्ञान की ही सत्ता स्वीकार करते हैं । ज्ञेयों का सर्वथा अभाव बतलाते हैं | परन्तु यह एकान्तवाद सिद्ध नहीं होता । सर्वज्ञ प्रणीत शासन में प्रमाण और प्रमेय की स्वतंत्र सत्ता स्वीकृत की है। जिन शासन में सर्वथ शून्य रूपता स्वीकृत नहीं की है । क्यों कि यहाँ तो (सर्वज्ञवाणी में) अभाव भी सद्भाव लिए होता है । आपका अनेकान्तबाद ही अपेक्षाकृत होने से प्रमाण - प्रमेय का यथार्थ स्वरूप निरूपण कर दोनों अस्तित्व सिद्ध करता है ।। १० ।।
निज शुद्ध स्वभाव में स्थित आत्मतत्त्व अनिच्छा से अपने में निमग्न हो अपने ही अनन्त सुखादि गुणों के द्वारा विभावित होता है । भगवन् ! आप वीतरागी और क्षायिक ज्ञान से विभूषित हैं । अतः ज्ञातव्य पदार्थों की ओर उपयोग परिणमन किये बिना ही अशेष पदार्थ प्रतिभासित होते हैं । इच्छा के सात उपयोग का परिणामन करना पड़ता है । आप इच्छा विहीन हैं फिर क्यों उपयोग लगायें ? आप एकता को लिए सम्पूर्ण पदार्थों
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