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चतुर्विंशतिस्तोत्र
इस तीक्ष्ण और व्यापी प्रकाश पुत्र में एक मात्र चैतन्य स्वभाव से ही संकलित होकर स्फुरायमान होती हैं | ज्ञानमात्र में ही अनुभवन कराने की योग्यता है क्योंकि यह ज्ञायक स्वभावरूप है । अन्यशक्तियाँ इसी चैतन्य से ज्ञापित होती हैं ॥ २२ ॥
हे भगवन्! आप अपने अनन्त ज्ञान द्वारा आत्मा को अनन्त स्वरूप ज्ञात करते हैं और इसी से अन्य अनन्त आत्माओं को भी अपनी इसी ज्ञायकशक्ति के ज्ञेय बनाकर उन्हें भी अवगत करते हैं । इस प्रकार प्रचण्डता से समस्त पदार्थों का समूह रूप से आपके में स्पष्ट दृष्टिगत होता है । यह आपकी निज शक्तिचक्र (समूह) ही आपके ईश्वरत्व को प्रकट स्पष्ट करती हैं । अर्थात् आप में कहीं उसमें प्राप्त नहीं है अपितु आप ही की आत्मशक्ति से उपलब्ध है ॥ २३ ॥
अपने जिन स्वभाव में समाहित और सुरक्षित स्वभाव, निराकुल आत्मा का द्योतन करता है । यह प्रभाव पर की सहायता की अपेक्षा से विहीन आप में उल्लसित होता है । स्वानुभव का विषयभूत सर्वतंत्र स्वतंत्र होता हुआ निरन्तर आनन्दामृत का अजस्र स्रोत परम्परा को प्रवाहित करता है । आत्मोत्थ आत्मानुमभवोत्पन्न आत्मानन्द आत्मा में अमन्दुरूप से प्रवाहित रहेगा | अर्थात् यह अनन्तकाल तक ज्यों का त्यों बना रहेगा । आत्म स्वातन्त्र्य की अपूर्व महिमा है, जो अपने ही स्वभाव में निरन्तर स्थित रहेगा ।। २४ ।।
हे प्रभो ! इसी अखण्ड, अक्षय भावना के द्वारा मुझे भी मेरी इसी केन्द्रीभूत, उत्कृष्ट आत्म ज्योति में प्रवष्टि करिये ! अर्थात् जिस प्रकार अग्नि कण लौह पिण्ड में प्रविष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार मेरी अखण्डज्योति मुझ में अभिव्याप्त हो जाये । मेरे ही अज्ञानभाव के कारण आज भी उस एक चिन्मय प्रकाश को मुझरूप नहीं होने दे रहा है । अतः मेरे गुण मुझमें प्रकट हों इस प्रकार का प्रसाद करें । हे प्रभो ! मेरी प्रमाद दशा का अभाव हो || २५ |
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