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चतुर्विंशति स्तोत्र
वाणी में तत्त्व स्वरूप प्रतिपादन की शक्ति म्यादाटमुद्रा के द्वारा ही आती है । इस शैली के हे जिन ! आप ही प्रतिपादक हैं । अतः वाणी में प्रतिपाद्यशक्ति के आप ही कारण हैं । उस स्याद्वाद मुद्रा से अंकित आपका सिद्धान्त तद् व अतद् स्वभावों को स्वयं अस्खलित रहकर वस्तु में अर्पित करती है । प्रत्येक धर्म कथंचिद् स्वभाव के निमित्त से वस्तु में अनेकों विरोधी स्वभावों को निर्विरोध सिद्ध होते हैं ॥ २० ।।
हे जिन ! आपके सिद्धान्त के बहिर्भूत प्राणी पर और स्व को एक रूप समझ बहिरात्मा अनादि दुःख को नष्ट करने का विफल प्रयास कर रहे हैं । निष्फल प्रयास के श्रम से श्रमित हुए उन मिथ्यादृष्टियों के अन्ततोगत्वा आप ही शरणभूत होते हैं । अर्थात् संसारभय से भयभीत हुए वे आपकी ही उपासना करते हैं । इस प्रकार आप अपने विरोधियों को भी शिवसुख मार्ग प्रदर्शन कर उनके द्वारा पूज्य होते हो । भेद-विज्ञान बिना आत्मीय सुख प्राप्ति असंभव है । वह भेद-विज्ञान भी आपके सिद्धान्त सिवाय अन्यत्र होना भी असंभव है । अतः एक मात्र आप ही उपासनीय सिद्ध होते हो ।। २१ ।।
जन्म, जरा, मरणादि संसार दुःखों से छुटकारा पाने के लिए बाल वत प्रयास करते हुए भी मिथ्यात्वी अज्ञानवश और अधिक दुःख के भार को ही वहन करते हैं । उन मोहान्धों के दुःख के मूल को उखाड़ फेंकने में आपका जिनशासन ही समर्थ है | आपके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर आरूढ़ होने वाला ही भेद-विज्ञान रूपी तीक्ष्ण छेनी से संसारदुःख रूपी वृक्ष की जड़ का उन्मूलन करने में समर्थ होती है । आपका शासन ही एकमात्र दुखियों की शरण है ॥ २२ ॥