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___ चतुर्विशति स्तोत्र
हे जिनेन्द्र ! आपका सिद्धान्त अनेकान्त से सम्पूर्ण पदार्थ सत् रूप हैं, इस कथन से वस्तु तत्त्व का सामान्य स्वरूप से अभेद सिद्ध होते हुए भी सत्ता के भेद का अभाव नहीं होता । अर्थात् सामान्य की मुख्यता से सत् अभेद (एक) रूप है तो विशेष गौण होकर भेद रूपता को भी रखता है । यदि मुख-गौण अपेक्षा से तत्त्व को भेदाभेद न माना जाय तो एकान्त रूप से सत् प्रत्यय की व्यापक व्यवस्था नहीं टिक सकती । इसलिए हे ईश ! जिन ! आपका सिद्धान्त ही अविरोधी है सापेक्ष होने से । यही अशेष विश्व को अपने में समाहित करने की क्षमता रखता है ।। १४ ।।
हे ईश ! आपके द्वारा प्रतिपादितं दर्शनानुसार आत्मा अपने ज्ञान धन स्वरूप से समस्त विश्व को व्याप्य कर रहती है । परन्तु तो भी वह आत्मा अपने एकत्त्व स्वभाव से च्युत नहे, होती । अतः एक अखण्ड ही रहती है । क्योंकि सत् और असत् विरोधी धर्म होकर भी एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं । तत्त्व नित्य ही द्वैतभाव से अवस्थित रहता है । एकान्त अद्वैत कभी भी सिद्ध नहीं होता । जो स्वयं असिद्ध है वह अन्य वस्तु तत्त्व की सिद्धि किस प्रकार कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता । अतः सभी ऐकान्तिक सिद्धान्त मिथ्या है | आपका ही सिद्धान्त समीचीन सिद्ध होता है ।। १५ ॥
आत्मा बलात् सम्पूर्ण संसार के नाना द्रव्य पर्यायों को आत्मसात करती है अर्थात् अपने विश्वव्यापी ज्ञान द्वारा प्रतिभासित करती है । परन्तु तो भी ये स्व और पर की सीमा में निश्चय से विद्यमान रहते हैं । अर्थात् आत्मा अपने आत्मीय स्वभाव में और अन्य तत्त्व अपने-अपने स्वभाव में ही स्थित हो उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप से परिणमन करते हुए अपना अस्तित्त्व रखते हैं । पदार्थों का नाना पना अनादि सिद्ध है । फिर भला ज्ञानधन संसार में उसे किस प्रकार लोप कर सकता है ? ज्ञान का स्वभाव तो जो पदार्थ जैसा है उसी रूप में उसे प्रकट दर्शाने का ही है |॥ १६ ॥