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चतुर्विंशतिस्तोत्र
कसकर रखते हैं अर्थात् इन रूप ही आत्मा का अस्तित्व बना रहता है । आत्मा ज्ञान-दर्शन चेतना स्वरूप हैं || १९ ॥
हे जिन ! आपके परम शुद्ध बुद्ध एक अखण्ड केवल ज्ञान व दर्शन में समस्त जगत- तीनों लोकों का एक साथ एक ही समय में सामान्य विशेषात्मक रूप से प्रतिभास होता है। यह अद्भुत, अचिन्य, परिपुष्ट पूर्ण विभूति है । यद्यपि आप स्वभाव से ज्ञान दर्शनमयी अखण्ड मूर्ति हैं । पर पदार्थों का उसमें प्रतिबिम्ब आकर भेदरूपता झलकाना है यही मात्र उनका उपकार है । अर्थात् ज्ञान और ज्ञेयों में निमित्त, नैमित्तिक स्वाभाविक सम्बन्ध हैं । ज्ञान की तेजोमयी उज्ज्वल ज्योति में स्वपर प्रकाश की अपनी स्वाभाविक योग्यता है और अन्य पदार्थों में उसमें झलकने की अपनी योग्यता है | ज्ञान और ज्ञेय सदा भिन्न-भिन्न अपने-अपने स्वरूप में ही रहते हैं । उनमें कभी भी तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता । हे जिन आपका सिद्धान्त ही अनुपम और अबाधित है || २० ||
अनन्तधर्मों से चुम्बित प्रदेशों के द्वारा दर्शनज्ञान चेतना का आश्रय लेकर ही आत्मतत्त्व का वैभव है । अर्थात् आत्मा की अशेष अनन्तशक्तियाँ दर्शनज्ञानमयी ही रहती हैं। इनमें प्रदेश भेद नहीं है । सम्पूर्णशक्तियाँ एकाश्रय ही स्थिति पाती हैं । ज्ञान दर्शन स्वभाव को लिए हुए ही है जिन ! आपने अनेक रूप बतलाया है । अर्थात् चैतन्य स्वभावाश्रित रहते हुए ही भेदरूपता - अनेकरूपता प्रतिभासित होती है || २१ ||
हे जिन ! आपने अपने असीम अनन्त दर्शन ज्ञान द्वारा वस्तु स्वरूप को प्रत्यक्ष देखा और जाना है । तदनुरूप उसे अभाव, सद्भाव और उभयात्मक निरूपण किया है । यद्यपि वह द्रव्य दृष्टि से एक है । पर चतुष्टय से अभाव रूप, स्व चतुष्टय से स्वभाव - सद्भावरूप और उभय विवक्षा से उभयरूप प्रतिपादित की है। वस्तु स्वयं इन तीन रूपों को अपने में समाहित
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