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= चतुर्विंशति स्तोत्र का अवगाहन करते हुए लवण की डली की लीला कर रही है । अभिप्राय यह है कि लवण तो एक क्षार रस वाला है, परन्तु विभिन्न व्यञ्जनों का निमित्त पाकर अनेकरूप होता है । इसी प्रकार चैतन्य शक्ति द्रव्य दृष्टि से एक और पर्यायदृष्टि से अनेक रूप प्रतिभासित होती है ।। १३ ।।
हे जिन ! आप अपने जैन मलाह से परिप्त । पिन स्वानुभवजन्य पीयूष से आर्द्र (मृदु) रूप से ही प्रकाशित होते हैं । अर्थात् आपका चित्चमत्कार सर्वोपकारी है । भव्यों के आनन्द, प्रमोद का हेतु है । जिस प्रकार रजनीकाल में तुषार-ओस विन्दु सर्वत्र छा जाती हैं । वे आद्र-कोमल स्वभावी होकर भी मुक्ताफल की कान्तिधारण कर प्राणियों के आनन्द की कारण होती है । इसी प्रकार आप भी है जिन ! निज स्वभाव लीन हुए भी भव्यानन्द करने वाले हैं ।। १४ ||
हे सर्वज्ञ ! आप ज्ञानामृत के रत्नाकर तो हो ही, उसके पारदर्शी भी हो । अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के युगपत प्रवर्तक हो । दोनों का प्रयोग एक ही समय में होता है | अगर इस प्रकार के प्रयोक्ता नहीं होते तो आप स्वात्मानुभव रहित हो जाते | तथा इस प्रकार होने पर चैतन्य वस्तु की महिमा में निष्ठ वीतरागता को त्याग देते । परन्तु ऐसा है नहीं ! क्योंकि आपमें वीगरागता (सर्वज्ञपना), अनन्तज्ञानल्य एवं अनन्तदर्शनत्व एक साथ प्रवाहित हो रहे हैं || १५ ॥
आपका हे जिन ! स्वानुभव अखण्डित (एकत्वलिए) है । इसमें अखिल अनन्त ज्ञान का सार समाहित है | पूर्णतः वृद्धिंगत होता हुआ भी छिद्र (खण्डरूप) नहीं देता । अर्थात् मध्यान्तर में विश्राम पूर्वक प्रवर्त नहीं होता, अपितु निरन्तर प्रवाहरूप ही रहता है । ज्ञान ही धारा अविराम रूप से निरन्तर प्रवाहित होती रहती है । इन्द्रियातीत और परापेक्षा से सर्वथा शून्य होने से यह निर्विघ्न, अक्षुण्ण रूप से अनुभव रूप ही रहता है || १६ ||
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