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चतुर्विंशतिस्तोत्र
श्रोताओं ने उस सिद्धान्त को स्याद्वादशैली में श्रवण किया । तथाऽपि कुछ ही शुद्ध अभिप्राय वाले भव्यों ने ही उसके यथार्थ स्वरूप को ज्ञात कर धारण किया ||११ ||
शब्दों में वस्तु स्वरूप के अनुसार विधि-निषेध रूप पक्षों के निरुपण करने की योग्यता विद्यमान हैं । एक ही वस्तु में अनन्त विरोधी धर्म विद्यमान हैं । उनकी अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से ही होती है। इस प्रकार अनेकान्त सिद्धान्त में विरोधी धर्म भी अविरोध रूप से एक ही पदार्थ में रहकर उसके अस्तित्त्व अक्षुण्ण बनाये रहते हैं । किन्तु जिनके एकान्ती सिद्धान्त में वस्तु की सर्वाङ्ग विवेचना न होकर एकाङ्गी निरूपण है वे एकान्तवादी स्याद्वादमुद्रा से रहित होने से विनष्ट हो जाते हैं । उनके द्वारा वस्तु का यथार्थ विवेचन नहीं हो सकता, क्योंकि वस्तु स्वयं अपेक्षावाद की अपेक्षा रखती हैं । कारण
वस्तु सामान्य विशेषात्मक उभयं धर्मों से युक्त है ॥ १२ ॥
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"यह सत् है" इस प्रकार का कथन असत् की अपेक्षा करता है । क्योंकि 'सत्' की प्रवृति अपने व्यावृत धर्म के साथ स्थिति रखती है । वस्तु धर्म की यही सीमा है । जिस प्रकार "इस समय दिन है। ऐसा कहते ही रात्रि नहीं है यह निषेधात्मक उक्ति स्वयं आ उपस्थित होती है। यह स्वाभाविक सिद्धान्त है | स्वभाव की सीमा को संसार त्याग दे तो अर्थ ही अन्यथा हो जाये | अर्थात् वस्तु तत्त्व ही नहीं रहेगा | सर्वत्र अव्यवस्था हो जायेगी | अमुक वस्तु इसी प्रकार ही है अन्य प्रकार नहीं यह कथन ही सिद्ध नहीं होगा । अथवा किसी भी पदार्थ का स्वरूप ही निर्धारित नहीं होगा | स्वरूप शून्यता का प्रसंग आयेगा । संकर दोष भी उत्पन्न हो जायेगा || १३ ||