________________
चतुर्विंशतिस्तोत्र
जिस प्रकार संक्रामक रोग से अत्यन्त पीडित हुआ रोगी हर प्रकार से अपनी शक्ति का प्रयोग पक्ष व हीने में उस रोग का नाश करता हैं, हे जिन उसी प्रकार आपने निर्विकल्प हो वीतराग भावरूप औषधि द्वास बल-वीर्य का सम्यक् और पूर्ण प्रयोग कर अनादिकालीन राग- मोह ज्वर क्रमशः पूर्णतः नष्ट कर दिया । फल स्वरूप परलोक की सिद्धि कर ली | जन्म, जरा, मरण संसार में महा भयंकर और प्रबल रोग हैं । इनका मूल हेतु राग परिणति है । इसकी विरोधी वीतराग परिणति है । अतः आपने परमार्थ की सिद्धि के लिए पूर्ण शक्ति लगाकर क्रमिक प्रयोगों द्वारा उस रागपरिणति को जड़ से नष्ट किया | तथा अर्हत् दशा प्राप्त की ।। ६ ।।
J
इस प्रकार हे प्रभो! आपने हर प्रकार से अपने अशेष आत्मवीर्य को सम्पुट कर संयम में केन्द्रित कर लिया । अर्थात् चारों ओर से उपयोग को संकुचित कर एक मात्र संयमसाधना में ही उपयुक्त कर लिया । ध्यानैकतान होने से कषायों का क्षय हो गया । आपका स्वरूप स्वयमेव प्रत्यक्ष ज्ञानधन स्वरूप हो गया । परिणामतः आत्मा अक्षय अविनाशी बन गया || ७ ||
इस विधि से आपके द्वारा सकलज्ञता प्राप्त हुयी । जिसमें समस्त स्व पर अर्थात् चराचर व्याप्त हो गया । एक साथ झलकने लगे । अपने आयुकर्म की स्थिति पर्यन्त उसके नियंत्रण में रहकर धर्मदेशना रूप व्यवहार कार्य किया। अपने शेष कर्म वेदनीय गोत्र और नाम के विपाकू को सम्यक् प्रकार ज्ञात करते हुए भव्यों को मुक्तिपथ प्रदर्शित किया ॥ ८ ॥
परिपूर्ण पुरुषार्थ से आपने बाह्य चारित्र को परिपक्व किया । तथा उसी व्यवहार नयापेक्षा सराग चारित्र में निष्णात होकर अन्तरंग कषाय शत्रुओं का नाश किया । यही सिद्धान्त आपने अपने भव्य श्रद्धालु भक्तों को अपनी वाणी द्वारा सूत्र रूप में प्रदर्शित किया । आपने मोक्षमार्ग की