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चतुविशति स्तोत्र
जिन आत्मन् ! तुम्हारा विकास इतना प्रखर और समुज्ज्वल है कि उसमें समस्त दिशा-चिदिशा अन्तर्निहित हो जाते हैं । एकरूपता ही दृष्टिगत होती है । स्वयं में ही स्वयं को स्वयं अनुभव करते हो इससे क्रिया, कारक आदि भेदों से उत्पन्न क्रम व अक्रमचक्र सभी विलीन हो जाते हैं । अतः सर्वज्ञता में सर्वत्र, सदा एक मात्र निज स्वभाव ही परिलक्षित होता है । यही दशा आत्म सिद्धि कराती है ।। १९ ।।
अपने स्वभाव के अतिरिक्त अन्यत्र प्रवृत्ति नहीं होती | तथा स्वभाव से भिन्न भी कुछ प्रतिभासित अपने में होता नहीं । अतः वीतराग अवस्था में आकुलता रहित सुख स्वसंवेदन रूप अपना ही स्वभाव उदीयमान रहता हैं । समस्त स्वभाव शक्तियाँ संघटित हो यह आत्म विलास एक ठोस और सघन प्रतापपुञ्ज से उल्लसित हो अति शोभायमान हो जाता है || २० ।।
स्वाभाविक षड्गुणी हानिवृद्धि के द्वारा अपनी ही सीमा में अपने ही निज स्वभाव से भरित व रिक्त होता हुआ आत्म तत्व उत्पाद व्यय ध्रौव्यता से युक्त अपना अस्तित्व स्थित रखता है | अपने ही प्रताप से अपने को तपाता है | हे जिन ! आप भी इसी सिद्धान्तानुसार अपने में तप्त होते हो | आश्चर्य यह है कि आप पूर्णवृद्धिंगत होकर भी पुनः वृद्धिंगत होते हो । तो भी आपकी सीमा जो है वही रहती है । आप आप ही के सदृश हैं । अन्य कोई उपमा नहीं । क्योंकि अपने ही ज्ञान प्रकाश में निहित रहते हो || २ १ ॥
हे देव ! आप अपने आत्ममहास्य से निराकुल हो वीतरागभाव से आत्मस्थ होकर भी अपने ज्ञान की उत्कटता का कभी भी परित्याग नहीं करते हो । जिस रूप में वह उत्तम तेज प्रकट प्रकाशित हुआ है वैसा ही अवस्थित है । उसी माहात्म्य को ज्ञानीजन निरन्तर जाज्वल्यमान रखते हैं |