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चतुर्विंशति स्तोत्र अपने स्वभाव से आप ही में समाहित हो मैत्रीभाव से स्थित हो गये हैं । प्रत्येक आत्मप्रदेश से आनन्दामृत का झरना अविरल रूप से प्रवाहित होता है ।। १८ ।।
अनन्त और अति अगाध तरंगिनी का आनन्द स्रोत अजस्र प्रवाहित होता हुआ अनन्त गुण रूपी विशिष्ट पादपों का अभिसिंचन करती रहती है । आप स्वयं आत्मा के द्वारा आत्मा को अनन्य स्वभाव से अनुभव करते हैं । यह आत्मानुभूति त्रैकालिक रूप से एक साथ अनुभूत होती है । सिद्धात्मा आपने शुद्ध स्वमतोफलनिय हो जाने से उसी में ही रहते हैं ॥ १९ ॥
क्षायोपशमिक ज्ञानावस्था में आत्मा का ज्ञान प्रकाश अनन्त भेदों में प्रवृत्ति करता था | उन अशेष भेदों का एकीकरण कर आपने केवल ज्ञान में केन्द्रित कर लिया । अर्थात् आत्मतेज को एक साथ सम्पुट कर एक समय में एक साथ अनन्त भेदों का ग्राही कर लिया । हे देव! तुम अपने आत्म स्वरूप में अन्तर्लीन हो आत्मशक्ति को प्रकट कर इसे अनेक धर्मात्मक रूप में देखते हो । ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्ति दोनों ही एक साथ अनन्त रूप में अध्यवसाय करती हैं ।। २० ।।
हे जिन! सर्वज्ञता भाव से भावित आप परम ज्ञाता हो गये । आपकी ज्ञायकशक्ति एकरूप हो विभिन्न शक्तियों रूप वैभव को विषय करती है । अगाध -असीम गहराई के साथ केवलज्ञान की अखण्ड किरणे श्रेष्ठ माला के समान प्रसरित हैं । अनन्त पदार्थों और पर्यायों से अभिव्याप्त होकर भी वे अपनी तीक्ष्ण प्रकाश स्वरूपता को तनिक भी परित्याग नहीं करती
आपका कैवल्यप्रकाश अनन्तरूपों में अभिव्याप्त होकर भी अपने शान्त तेज में निविष्ट रहता है । आपकी आत्मा में ही तद्रूप निवास करता हुआ स्पष्ट रूप से आत्मस्वरूप को प्रतिभासित करता है । सम्पूर्ण शक्तियाँ
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