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चतुर्विशति स्तोत्र
पाठ-६ शुभ, अशुभ और शुद्ध की अपेक्षा क्रिया तीन प्रकार की हैं । अशुभ क्रियाओं से अशुभ कर्मास्रव बंध होता है और शुभ क्रियाओं से शुभाम्रव बंध 1 बंधक क्रियाएँ सभी संसार परिभ्रमण की शक्तिशाली मूल कारण हैं । मिथ्यात्व पूर्वक सभी क्रियाय भवभ्रमण की प्रधान हेतू हैं । हे भगवन् ! आपने उन अशेष क्रियाकाण्डों को अपने शुद्धोपयोग से प्राप्त शील के अठारह हजार भेदों को प्राप्त कर शील के माहात्म्य को विनष्ट कर दिया | आपकी शील महिमा प्रकाशित हुई जयशील है । इसके प्रभाव से सम्पूर्ण क्रिया समूह आमूल-चूल नष्ट हो गई || १ ||
सतत, निरन्तर तेजोमय, जाग्रत वैराग्यभरित चित्तवृत्ति द्वारा, समस्त भोगों को निस्पृह हो त्याग दिया | परम वीतराग भाव से विषयभोगों से विरक्त हो अपने जीवन सुतपरूपी अग्नि में होम दिया । हे प्रभो ! इसी तपोऽग्नि होम से क्रीडामात्र में संसार सन्तति से भिन्न हो गये । अर्थात् जन्म-मरण की श्रृंखला को नष्ट किया || २ ||
हे विभो ! आप अनादि कालीन चले आये संसार के मार्ग को त्याग कर शीघ्र ही मोक्षमार्ग के वाहक हो गये । हे जिन उस भवभ्रमण का पथ परिवर्तित हो अतिदूर हो गया । जब आप स्वयं ही उसका तिरस्कार कर उससे पराङ्मुख हो गये तो फिर क्यों नहीं उससे विपरीत मोक्षमार्ग के आरोही होते ? अवश्य होते ही | अभिप्राय यह है कि जो जिससे विरक्त हो विमुख हो जाता है उससे वह भी दूरतम हो जाता है | भगवन् आपने संसार पथ का परित्याग किया तो मोक्ष मार्ग मिलता ही || ३ ||
भो जिनेश ! आपने अजेय धैर्य के साथ एकाकी महान उत्तम आत्मपथ-मोक्षमार्ग में आकुलता रहित विहार कर आत्म साधना की | आपने उद्दाम पुरुषार्थ द्वारा भयंकर क्रूर, आत्मस्वरूप विध्वंसक कषायरूपी डाकुओं के सम्यक् प्रकार कृष किया । अर्थात् तनिक भी उनका अस्तित्व नहीं रह सका | आप पूर्ण निष्कषाय हुए | आत्मा के रत्नत्रय स्वरूप अनन्तचतुष्टय
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