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चतुर्यिप्रति स्तोत्र
रूप धन को हरण करने वाले कषायरूपी चोर हैं । आपने ही उनका घर्षण कर विजय प्राप्त की है || ४ ||
आपने ही हे जिन ! असह्य, दुस्तर कर्म भार से मलीमस आत्मा को तपश्चरण से आध्यात्म्य विशुद्धि की वृद्धि द्वारा पवित्र किया । बार-बार भव भवांतरों में संचित किये कर्मी को बलात् तप द्वारा तीव्ररूप में उदयावली में लाकर निर्जरित किया । अर्थात् पूर्व बद्ध कर्मों का अपकर्षण कर उन्हें स्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही आपने उदयागत कर खपा दिया । इस प्रकार आत्मा से सम्बद्ध कर्मों के खजाने को रिक्त कर आत्मा को शुद्धावस्था में प्राप्त करा दिया । अतएव आप स्वयं विशुद्ध हुए ॥ ५ ॥
हे जिनेश्वर ! आपने ध्यान रूपी अग्नि की अचल प्रज्वलित शिखा की धारा से कम रज को भस्म किया । तथा क्षपकश्रंणो पर आरोहण किया । आप हतोत्साह नहीं हुए । अपितु धारा प्रवाह से उत्साहित होते हुए उद्यमशील बने रहे | उस अखण्ड उत्साह के बल से प्रतिक्षण क्रमिक रूप से कषायों का क्षपण किया । अर्थात् चारित्र मोह का भी पूर्ण नाश किया | कषायरूप कार्माण वर्गणाओं के समूह को बादर कृष्टि और सूक्ष्म कृष्टि द्वारा घर्षण कर चूर-चूर कर डाला । प्रथम कषायों-मोह को विनष्ट कर पुनः उसी समयान्तर से ज्ञानावरण, दर्शनावरण रूप रज कर्म धूलि को उड़ा दिया । इस प्रकार निरन्तर तपश्चरण और ध्यानानल की तीक्ष्ण शिखा से कर्म-कषाय संहार किया ॥ ६ ॥
ज्यों ज्यों आपका वैराग्यभाव अनुकूल होता गया, त्यों त्यों आत्मवैभव प्रकट हुआ । तदनुसार उत्तरोत्तर पुरुषार्थरूप अध्यवसाय परिणतियाँ वृद्धिंगत हुयीं । फलतः परिणाम विशुद्धि एवं आत्मशुद्धि भी विकसित होने लगी । भगवन् ! आप परम दयालु, आकस्मिक वैद्य स्वरूप प्राणीमात्र के कष्ट हरने वाले होने पर भी कषायरिपुओं के संहार करने में अति कठोर व निर्दय हो गये । इस कार्य में उनको (कषायों) दलन करने के लिये क्रमशः बादर कृष्टि और सूक्ष्मकृष्टि का प्रयोग कर उन्हें सदैव को