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चतुर्विंशति स्तोत्र
नष्ट कर दिया । जो आत्मा को कषै कष्ट दें या जो संसार क्षेत्र को कर्षण कर पुष्ट करें वे कषाय कहलाती हैं । आत्म स्वातन्त्र्य के अभिलाषी भला आप इन पर किस प्रकार दया करते ? आत्महितैषी अपने कल्याण में दत्तचित्त होते हैं । अतः आत्म स्वरूपानन्द की घातक क्रोधादि कषायों का संहार आपके लिए योग्य ही है || ७ |
स्वसंवेदन से प्राप्त निजानन्द रस निमग्न हो, दुष्कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा कर अनन्त अद्भुतगुणों से सम्पन्न विशुद्धि द्वारा परिणमन कर तेजस्वी ज्ञान प्रकाश शाली हुए । इस पराक्रम द्वारा सूक्ष्म लोभ की क्षीण, निशक्त लालिमा को भी धो डाला । सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में लघु अन्तर्मुहूर्त रहकर हे जिन आप क्षणभर में ही क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँच गये । यहाँ अशेष कषायों से रहित हो गये ।। ८ ।
इस प्रकार (उपर्युक्त विधि से ) हे प्रभो, आपने कषायों को नीरस अर्थात् अनुभाग शक्ति विहीन करने का सुकौशल प्राप्त किया । इस प्रकार साम्परायिक आस्रव की अन्तिम सीमा को पार किया । फलतः अविनश्वर, उज्ज्वल ईर्यापथ आस्रव को प्राप्त किया । तथा स्थिति और अनुभाग बंध का द्वार सदैव के लिए पिहित ( बन्द ) कर दिया | आगम में प्रकृति और प्रदेश बन्ध का हेतू योगों को कहा है और स्थिति, अनुभाग बन्ध का कारण कषायों को । चूंकि हे जिन आपने कषायों का आमूल उन्मूलन कर दिया - उखाड़ फेंका, फिर भला कारण के अभाव में कार्य किस प्रकार हो ? नहीं हो सकता । अतः स्थिति और अनुभाग बन्ध स्वयमेव रुक गये ।। ९ ।।
शनै: शनै: गुणस्थान सोपान पर चढ़ते हुए आपने क्रमशः अपने शिवस्वरूपोपलब्धि के व्यवसाय को समृद्ध बनाया । अर्थात् मुक्ति प्रासाद के सन्निकट पहुँचने की स्वानुभूति रूप सम्पत्ति को सुदृढ़ बनाया । इस निज वैभव से घातिया दुष्ट कर्मों की कालिमा कलङ्क को वंचित करने की सामर्थ्य हो आत्मसात किया । परम हर्ष से उत्फुल्ल हुयी मनो कलिका विकसित हो गयी । आत्मानन्द की कलियाँ विकासोन्मुख होने लगी || 901