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चतुर्विंशतिस्तोत्र
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प्रत्येक शब्द अपने वाच्य वाचक रूप परिणमन करने की शक्ति से सम्पन्न रहता है । वह इसी कार्य-कारण शक्ति के साथ अपनी सत्ता को स्वभाव ही से सुरक्षित रखता है। परन्तु वह अपनी पौद्गलिक पर्याय का उलंघन नहीं करते । बौद्ध सिद्धान्त में शब्द को अपोह वाचक कहा है । यथा 'गौ' शब्द सीधा गाय का बोध नहीं कराकर 'अंगौ' अर्थात् यह अश्व नहीं, गज नहीं, महिष नहीं इत्यादि अपोह नकार रूपता को सिद्ध करता है | सांख्यवादी शब्द को सर्वथा नित्य और आकाश से उत्पन्न आकाश का गुण कहते है | ये सिद्धान्त तर्क की तुला पर चढ़ते ही अपना अस्तित्व खो बैठते हैं । हे जिन देव:- आपके सिद्धान्त में शब्द पुदगल की पर्याय है स्वतंत्र द्रव्य नहीं । पर्यायें स्वभाव सिद्ध होते हुए भी अपनी व्यक्ति में पर निमित्तों की भी अपेक्षा रखती है। चूंकि शब्द अपने पौद्गलिक पने का कभी भी उलंघन नहीं करता । जो जिसकी पर्याय होती है वह अपने द्रव्य - आश्रयी के स्वभावरूप ही होती हैं । जड पदार्थों की व्यंजना चेतन-ज्ञान की अपेक्षा करती है । अस्तु हे देव | आपके सिद्धान्त में शब्दों की "वाचकशक्ति" चेतना के द्वारा यथार्थ रूप से यथायोग्य समय में अपने वाच्य का याथातथ्य ज्ञान करा देती है । इस प्रकार शब्द शक्ति का व्यक्तिकरण आपने बतलाया है जो यथार्थ है उचित और निर्दोष है ॥ ८ ॥
निश्चय नय से अन्तरंग और वाह्य पदार्थ अपनी-अपनी स्वभाव सत्ता से ही स्थिति पाते हैं । परन्तु व्यवहार नय की विवक्षा बिना उनका विवेचन नहीं हो सकता । हर पदार्थ अपने प्रतिपक्षी स्वभाव से जीता है । इसीलिए आपने अपनी देशना में स्पष्ट बतलाया है कि बाह्य पदार्थों का अपलापअभाव करने पर आभ्यन्तर पदार्थ किस प्रकार सिद्ध हों ? और अन्तरङ्ग के बिना बाह्यपदार्थ ही नहीं रह सकते । उभय शक्तियों के रहने पर ही यह आभ्यंतर है" यह वाह्य है" इस प्रकार का व्यपदेश संभव है । इसी
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