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- चतुर्विशति स्तोत्र अणुओं के भेद से ये खण्ड-भेद पर्यायनय से ही सिद्ध है । पर्यायें प्रतिक्षण परिवर्तित होती हैं अतः कालाणु के माध्यम से सभी क्षणक्षयी होती हैं । अर्थपर्याय वा व्यञ्जन पर्यायें सभी आपके सिद्धान्त में इसी प्रकार उछलती हुयी पदार्थ की समग्रता को सिद्ध करती हैं | अभिप्राय यह है कि भेद भी अभेदता को सिद्ध करता है । क्योंकि भेदाभेद निरपेक्ष नहीं है || १४ ।।
निरंश-अभेद रूप सत्ता एक है । यह द्रव्यार्थिकनय से सिद्ध है | इसी को पर्यायनय से विवेचना करने पर अंश-भेद कल्पना प्रकट होती है । पूर्ववती एकत्व ही कालावधि की अपेक्षा से अंगरूप विस्तार को प्राप्त होता है । पुद्गल का परिणमन स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार से होता है । अंशांश ही सूक्ष्मतम अवस्था को सतत प्राप्त करते हैं । इस प्रकार
आपके सिद्धान्त में तत्त्व नाना भेटों से अनन्त प्रकार से स्फुसयमान होते हैं || १५ ॥
महासत्ता और अवान्तर सत्ता के भेद से दो प्रकार की सत्ता है | अवान्तर सत्ताएँ अनेक हैं । तो भी समग्रता-द्रव्यदृष्टि से द्रव्यापेक्षा वे सभी अखण्ड रूप हैं । अर्थात् अवान्तर सत्ताएँ भी अपने-अपने द्रव्यत्व अपेक्षा अभेदरूप हैं । अभेद विवक्षा में वे समस्त भेद उसी अपनी-अपनी सत्ता में समाहित होती हैं, अर्थात् उसी में तन्मय होकर रहती हैं । इन प्रदेश भेदों के बिना वह सत्ता भिन्न-भेद बिना एकत्य लिए प्रकाशित होती है इस प्रकार भगवन्! आपके अनेकान्त सिद्धान्त में भेदाभेद विवक्षा सिद्ध होती है || १६ ॥
सत् सामान्य और सत्ता-विशेष ये दोनों ही इतरेतर सम्बन्ध से एक साथ रहते हैं । एक के रहने पर दूसरे की उपस्थित होना, नहीं होने पर नियम से नहीं रहना "इतरेतर" सम्बन्ध कहलाता है । विधि-निषेध एक ही वस्तु में नियम से एक साथ रहते ही हैं । उभय धर्ममय ही वस्तुतत्त्व का अस्तित्व होता है । अतः सामान्य-विशेष के एकीकरण करने पर सामान्य