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प्रविधि स्तोर - = को एक साथ विषय करते हो । वाच्य-वाचक भाव के बिना जैसे समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं । यहाँ आचार्य श्री ने सर्वज्ञप्रभु की वीतराग परिणति से सर्वाङ्ग से उत्पन्न दिव्यध्वनि का सातिशायी वर्णन किया है । दिव्यध्यनि वाच्य-वाचक सम्बन्ध की अपेक्षा न कर सकल तत्वों का ध्वनिरूप से निरूपण करती है । श्रोताओं के कर्णपुट में पहुँच कर अक्षरात्मक रूप धारण कर वाच्य-वाचक सम्बन्ध से व्यक्त होती हैं ।। ११ ।।
__वस्तु व्यवहारनयापेक्षा पर्यायों की अनेक विविधताओं के भार से भरित है, वही निश्चयनय की दृष्टि से अपने स्वभाव मात्र से निरन्तर स्फुरायमान रहती है । इस प्रकार आपके सिद्धान्त में गुण-पर्यायों का समुदाय सहभावि वैभव से समग्रता के अन्तिम विकास को प्राप्त हैं | चारों ओर से क्रमिक पर्यायों और सहभावी गुणों से प्रकाशमान रहती है | भेद और अभेद विवक्षा से वस्तु में नानात्व और एकत्व का समन्वय आपने अपने सिद्धान्त में प्रतिपादित किया है || १२ ॥
पदार्थ सामान्य और विशेष धर्मों से सम्पन्न हैं । उभय धर्मों का परिज्ञान कराने वाली दो दृष्टियाँ हैं । इनका मुख्य और गौणरूप से प्रयोग करने पर ये दोनों धर्म पृथक्-पृथक् से दृष्टिगत होते हैं । यथा जिस समय विशेष-भेद विवक्षा को गौण कर विचार किया जाता है तो वस्तु सहज रूप से एक, अखण्ड, सनातन, निःप्रतिद्वन्दी, सन्मात्र ही सदा रहती है | हे ईश आप समन्ततः इसी रूप देखते हो | आपके सिद्धान्त मे एकान्तवाद कहीं भी प्रतिपादित नहीं है, क्योंकि वस्तु स्वरूप ऐसा है ही नहीं । वह तो भेदाभेद विवक्षा की मुख्य गौण अपेक्षा पर ही आधारित है । आपके असीम ज्ञान में उसी रूप प्रतिभासित होती है || १३ ।।
हे भगवन्! आपके सिद्धान्त में मूर्त (पुद्गलरूप) और अमूर्त अर्थात् रूप-रस-गंध और स्पर्श रहित पदार्थ पर्यायार्थिक नयापेक्षा भेद रूप हैं । यह भेद या खण्डता काल द्रव्य की अपेक्षा से व्यक्त होती है । प्रदेशभेद से