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चतुर्विंशति स्तोत्र
विशेष की घनिष्ट मित्रता स्पष्ट अवगत होती है । जिस प्रकार धर्म धर्मो से चिपटकर रहता है कभी भी वियुक्त नहीं होता, उसी प्रकार सामान्य, विशेष धर्म भी वस्तु में अविच्छिन्न रूप से सदाकाल रहते हैं || १७ || हे भगवन् आपका केवल ज्ञान अपूर्व प्रभावशाली है । स्वयं अनन्त होते हुए भी अनन्त पदार्थों की अनन्त पर्यायों के एक साथ विषय कर भी अनन्तता को ही धारण किये रहता है । लोक में कार्यकारण भाव को प्राप्त कर समस्त पदार्थ बार-बार परिणमन करते हुए विचित्रता अनेक रूप होतं रहते हैं | परिणत दशा प्राप्त सभी पदार्थ निमित्तों की अपेक्षा करते ही हैं । निमित्त अनेक प्रकार के होने से नैमित्तिक भी अनन्तता का धारण करने हैं । हे देव! आप उन अनन्तों को एक समय में ही दृष्ट बना लेते हैं । फिर भी पुनः पुनः अनन्त रूप से अनन्त ही दृश्यमान होते रहते हैं । अभिप्राय यह है जो कुछ दृश्य है वह अनन्तगुण भी क्यों न हो जाय तो भी आपके केवल दर्शन में समाहित हो जायेगा, फिर भी वह अनन्त का ग्राही ही बना रहेगा | यह अलौकिक शक्ति आप में ही है || १८ ||
हे सर्वज्ञ ! आपके दर्शन में प्रत्येक पदार्थ अपनी स्वाभाविक अनन्त अर्थ पर्यायों द्वारा भरित हैं । यह भी व्यंजनपर्यायों के द्वारा विविधरूप को प्राप्त होते हैं । गुणों के विकार को अर्थ पर्याय कहते हैं और प्रदेशवत्त्व गुण के विकार को व्यञ्जन पर्याय कहते हैं । ये दोनों ही पर्यायें शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो-दो प्रकार की हैं। इसी दृष्टि से आपने निरूपित किया हैं कि व्यञ्जनपर्याय द्वारा भेद रूप होकर भी वह कभी भी अपनी स्वरूप सत्ता का परित्याग नहीं करता । अर्थात् नर-नाराकादि पर्यायों में परिभ्रमण करता नानारूप आकार धारण कर भी जीव अपनी असंख्यात प्रदेशी अखण्ड एकरूप सत्ता का कभी भी त्याग न कर अपनी ही समग्रता में स्पष्टता को प्राप्त करता है । इसी प्रकार पुद्गल भी है। आपका अनेकान्त सिद्धान्त ही इस गूढता का स्पष्टीकरण करने में समर्थ है || १९ ।।
द्रव्य और पर्याय अभेद विवक्षा से एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं होते । अर्थात् द्रव्य का निषेध कर पर्यायें पृथक अस्तित्व रखने में समर्थ
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