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चतुर्विंशतिस्तोत्र
को तनिक भी विकृत या मलिन नहीं कर सकती । वह तो निरन्तर अपने ही स्वभाव से दैदीप्यमान होता रहता है ! ५
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हे विभो प्रत्येक वस्तु पर पदार्थ की अपेक्षा बिना अपने ही स्वभाव भाव से परिणमित होती रहती हैं | स्वभाव निरपेक्ष होता है । इसी प्रकार आपका सर्वोत्कृष्ट ज्ञान भवनमात्रशक्ति सम्पन्न होने से विषयों की अपेक्षा बिना ही अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रवर्तन करता है । स्वभाव की गरिमा इसी में है । प्रबोध - ज्ञान की सत्ता कभी भी पर की अपेक्षा से अपना अस्तित्व नहीं रखती. अपितु स्वाश्रय से स्थित रहती है । यद्यपि उस अक्षुण्ण प्रज्वलित ज्ञान ज्योति में अशेष विश्व एक साथ समुदाय रूप से प्रतिविम्बित होता हैं । तथाऽपि वह तो अपने चिन्मय स्वरूप से ही ज्योतित होता है | ज्ञान स्वभाव की महिमा अपार है, उसकी विशद स्वच्छता इतनी उज्ज्वल प्रकाशित होती हैं कि तीन लोक का क्या अनन्त लोक भी हों तो ये भी झिला-मिला उठेंगे | अतः पर पदार्थों ज्ञेयों के आलम्बन से ज्ञान परिणमन नहीं करता अपितु स्वतः स्वभाव से ही करता है । इस सिद्धान्त से बौद्धों की तदाकार तदुपत्ति मान्यता निर्मूल हो जाती है ॥ ६ ॥
हे प्रभो आप के सिद्धान्तानुसार पदार्थों की सत्ता और पदार्थ समूह भिन्न-भिन्न नहीं हैं । कोई भी पदार्थसत्ता अपने गुण धर्म-स्वभाव का परित्याग कर भिन्न रूप से अकेली स्फुरायमान नहीं होती । यह तो मीमांसकादि जो ज्ञान को अस्वसंवेदी स्वीकारते हैं । उनका वचन विलास मात्र सिद्धान्त है । उनके सिद्धान्त में आत्मा अलग है और ज्ञान गुण उससे सर्वथा भिन्न हैं, एक समवाय सम्बन्ध और है जो उन दोनों को जोड़ता है । यह कथन असंभव है । अनेक दोषो से दूषित है। आपके सिद्धान्त में तो निरूपित है कि आप स्वयं ज्ञानघन स्वरूप होकर ही सदैव सम्पूर्ण पदार्थमलिका को अपने ही चैतन्यात्मा से प्रत्यक्ष करते हो । अर्थात् आत्मा स्वयं ज्ञानात्मक है- चिद् ज्योति स्वरूप है। पूर्ण विकास से प्राप्त हो सर्वज्ञ में स्थित
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