________________
चतुविशति स्तोत्र
पाठ ५
हे भगवन् ! आपकी केवलज्ञान रूपी लता वृद्धि को प्राप्त नहीं होती । और सर्वोच्च शिखर को भी प्राप्त होती है। यहाँ वृद्धि नहीं होने पर भी असीम सीमा प्राप्त होना विरोधाभास लगता है, परन्तु जिन प्रणीत तत्त्व सिद्धान्त से पूर्ण अविरोध है | कैसे? केवलज्ञान अविनश्वर और पूर्ण है । अपने असंख्यात आत्मप्रदेशों को व्याप्त कर ही रहता है उससे बाहिर नहीं जाता । अतः बढता नहीं । बढकर अन्य ज्ञान नहीं अतः सर्वोच्च है । अपने आत्मतेज के अदभुत प्रकाशपुञ्ज में अवस्थित रहकर भी सम्पूर्ण विस्तार को प्राप्त हुआ अवभासित होता है | निश्चयनयापेक्षा निज स्वभाव-ज्ञानधन स्वभाव में स्थित रहता है । परन्तु व्यवहार नय की अपेक्षा सम्पूर्णलोक को प्रकाशित करता है अतः सर्वव्यापी भी है || १ ||
आपका कैवल्यज्ञानप्रभाव अनाद्यनन्त है । यह द्रव्यार्थिक नय से सिद्ध है | पर्यायार्थिक नयापेक्षा विचारने पर भूतपूर्व क्रमिक अनन्त पर्यायों की शृखंला को भी निज में समाहित किये हुए है । क्यों कि "गुणपर्यवद्रव्यम्" यह द्रव्य का निज स्वभाव ही है | त्रैकालिक शक्तियों से विस्तृत होता हुआ भी अपने ही प्रभाव से आविद्ध है-अपने में ही समाहित है । भूत-भविष्यत् वर्तमान का व्यवहार परिवर्तनीय है, यह परिणमन इसमें प्रतिबिम्बत होता है । परन्तु यह तो अपने निज द्रव्य की गरिमा - गौरव से पुष्ट, सुनिश्चल, सुस्थित सनातन और समीचीन उदयरूप प्रतिमासम्पन्न प्रकाशित होता है ।। २ ।।
यह आपकी ज्ञानरूप सत्ता ने सम्पूर्ण विभावरूपता का परित्याग कर दिया है । क्षायोपशभिक अवस्था में होनेवाले हानि-वृद्धि रूप विकारी क्षणिक पयार्यों को समाप्त कर दिया । क्योंकि विकार के कार कारणभूतं ज्ञानावरणी कर्म का क्षय कर दिया । अतः क्षायिक ज्ञान होने से आत्मा के