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चतुपिशति स्तोत्र
चंचल विभाव किस प्रकार आ सकते हैं ? क्या वे अनेक धर्मात्मक एक स्वभाव की अविचल दशा को देखने में भी सक्षम हैं क्या ? नहीं । अभिप्राय यह है कि भगवन्! एक बार अपनी स्वसवित्ति से स्वात्मा स्वाधीन हो जाय तो पुनः कोई भी शक्ति उसे संवलित नहीं कर सकती ।।११।।
अनन्त संकल्प-विकल्प जाल स्वभाव से ही बनते-बिगड़ते रहते हैं और पर निमित्तों की अपेक्षा भी आते-जाते हैं । यद्यपि समस्त वस्तुएँ अपने-अपने वैभव से अभ्युदय-उत्थान को प्राप्त होती रहती हैं । कितने ही विभाव क्यों न मिले परन्तु एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप कभी भी परिणमित नहीं होता । हे भगवन् ! इस रहस्य सम्पदा को बुद्धि अज्ञानी-मिथ्या दृष्टि कभी भी नहीं ज्ञात कर सकता । वह तो परभावों को ही स्वभाव मान भटकता रहता है । परन्तु, आप उन विपरीत स्वमापी विभावों को सम्पद प्रतार कर लिए हैं । इसीसे उस विभाव आवलि का मालिका के कण-कण को चुन-चुनकर पूर्णतः वहिर्भूत कर दिया । अतः स्वयं अपने अभ्युदय से दीपित हो रहे हैं ।।१२।।
हे भगवन् ! आप वस्तु तत्त्व को एकभी कहते हैं और अनेक भी आपने भिन्न और अभिन्न रूप उभय धर्म एक ही समय में आत्मतत्त्व में उपदिष्ट किये हैं । यह विरोधाभास स्पष्ट लगता है परन्तु आपके सिद्धान्तानुसार यह कथन सर्वथा अविरोधी ही सिद्ध होता है | यथा आपका शुद्धात्मा पर भावों को धारण नहीं करता, उनसे वियुक्त हुआ है अतः भिन्न है और अपनी अनन्तशक्तियों से सम्पन्न है उनसे कभी भी च्युत नहीं होगा इसलिए अविभक्त-मिथरूप है । इस प्रकार विरोधों का अविरोध रूप से एक बस्तु में एक साथ प्राप्त होना ही द्रव्य की महिमा है । ऐसे महातेज में महानन्द स्वभाव की पुष्ट लहरें माला के समान लीन हुई शोभायमान होती हैं | आर्थिक और परमार्थिक नयों द्वारा विवक्षित और अविवक्षित धर्मो की अपेक्षा वस्तु
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