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चतुमिश्नति स्तोत्र
सामान्य विशेष धर्मों से समन्वित आत्मतत्त्व एकत्व और अनेकत्व रूप उभय धर्म से सम्पन्न है, ऐसा आपने प्रतिपादित किया है क्यों कि अभेददृष्टि से आपने, विविध व्यतिरेक रूप अनन्त पर्यायों में क्रीड़ा करते हुए भी एक रूप अखण्डता को लिए ज्ञात किया । अतः आत्मा अनन्तगुणमणि मण्डित भी अखण्ड एक चिन्मय है ! आप उस एकल के दाता-नयोति द्वारा अनेक शक्तियों को प्रकाशित प्रकट-दर्शाते हुए भी, हे देव एकपने से ही प्रतिविम्बित होते हैं । अर्थात् अगुरुलघु गुण के निमित्त से षड्गुणी हानि-वृद्धियों से अनेकरूपता को प्राप्त अपने एक चिन्मात्र स्वभाव में ही स्थित हुए प्रतिभासित होते हो ॥ ६ ॥
__ हे भगवन्! आपकी सम्यग्ज्ञानरूपी लता अशेष लोकालोक को व्याप्त कर असीमता को प्राप्त हो गई है | यह अद्भुत नवोल्लास से लहरा रही है- शोभ रही है । यही नहीं अपने अन्तर्मुखी आनन्द पल्लवों से क्लुप्त-एकरूपता को प्राप्त हो, निज स्वभाव भावों से उल्लसित होती हुयी एकरूप किलोलों में लीन हो गयी है । अर्थात् सर्व को जानती-देखती हुयी भी उनसे अलिप्त अपने एकीभाव में लीन है ॥७॥
__ अनस्त रहने वाले ज्ञानरूपी पवन से दोलायमान क्रीड़ा से आपने संसार पर विजय प्राप्त की है ।झंझावायु समान सम्पूर्ण संसार वृक्ष को आमूल चूल उखाड़फेंका है । अतः जगज्जयी हुए हो । अब यह नवीन उदित ऊर्जा अपने आत्म स्वभाव में क्रीड़ारत है । यह अकारण ही हे प्रभो! मेरे मन को आन्दोलित सी कर रही है | अभिप्राय यह है कि भगवान की स्वभावोद्भूत आत्मशक्ति का चिन्तन करने से चिन्तक-भक्त की भावना भी अपने विकास को आतुर हो उठती है ! आत्मदृष्टि जाग्रत हो जाती है ।। ८ ।।
निष्क्रिय टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव से एकरूप ज्ञान अगाध-गंभीर असीम धैर्य सम्पन्न, अत्यन्त दुधर्ष आनन्दभार से भरित अन्तरङ्ग गरजरहा