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चतुर्विंशति स्तोत्र
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वह दुस्साध्य निजभावोपलब्धि अति सार जना दी गई । ककी नमी कम ज्योति आपमें प्रकाशित हो रही है । अतः पर भावों विभावों का परिहार करते-करते स्वभाव-भाव सहज ही उदीयमान हो जाते हैं । हे भगवन् ! ऐसा ही अचिन्त्य महा आत्म तेज मेरा भी प्रकाशित करो वही प्रार्थना है || ३ ||
हे भगवन् ! आपके द्वारा स्वयं ही अपने आत्मतत्त्व में समाहित अनन्त गुणपर्यायों से सम्पन्न अनन्त शक्तियाँ स्पष्ट प्रकट कर ली गई हैं । अनन्तगुणों का समूह आपने अपने ही द्वारा प्राप्त कर धारण किया है | संसार में यह अचिन्त्य चिदशक्ति का प्रकाशमान स्वरूप किसे आश्वर्यान्वित नहीं करता? करता ही है । परन्तु सदृष्टि तत्त्वज्ञाता आपको आदर्शस्वरूप मान स्वयं की शक्तियों को प्रकट करने का साधन बनाते हैं । अभिप्राय यह है कि आत्मा अनन्तधर्मों का पुञ्ज है । सामान्यजन उनका बोध प्राप्त नहीं कर सकते । आपने अपने ज्ञान-वैराग्यप वीतरागभाव से उन्हें पहिचाना और स्पष्टरूप में प्रकट किया । अतः आप ही परमात्मा हैं ।। ४ ॥
जो जीव अपने निज स्वभाव के तेज से अनभिज्ञ है, वह निश्चय से धूलिसात हुआ-मलिन रूप में प्रतिभासित होता है । कारण अपने ही द्वाग उपार्जित कर्मरज से स्वयं को आच्छादित किया है । वहीं किसी विज्ञान धन को प्रकाशित करता है तो अनन्त चिद् शक्तियों के प्रकाशन से अनन्तनाम प्राप्त करता है तो अर्थात् जो मिथ्यात्व तिमिर से अपने को आच्छादित करता है वह कर्मरज का भार ढोता है दुःखी होता है । परन्तु जो तत्ववित अपन ज्ञान को सम्यग्दर्शन ज्योति से द्योतित करता है, वह अनन्तगुण गण मण्डिन हो अनन्त नामों से स्तुत्व हो जाता है । स्वयं अकेला ही आनत्य वैभव का वहन करता है ।। ५ ।।