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चतुर्विशति स्तोत्र
होना समुद्घात कहलाता है । केवली जिन जिस समय लोकपूरण समुद्घात करते हैं तो आत्मप्रदेश तीनों लोकों में विस्तृत हो जाते हैं । इस प्रक्रिया से तीनों अधातिया कर्मों के प्रदेश विखर जाते हैं और आयुकर्म के समान स्थिति वाले हो जाते हैं ।। २० ।।
तत्पश्चात् सम्पूर्ण चौरासीलाख उत्तरगुणों और अठारह हजार १८००० शीलों से सम्पन्न हो जाता है । इस प्रकार गुण व शीलों का अधिपति होकर योग निरोध करता है | कुछ ही समय में अर्थात् अ इ उ ए ओ इन पंच लघु अक्षरों के उच्चारण काल में संसार पर्यायका परिवर्तन कर -अभावकर शीघ्र ही सादिसिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है । सादिसिद्ध जिन कहलाता है || २१ ॥
इस स्थिति में अब अनन्त सुख, अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्तवीर्य-अनन्तचतुष्टयरूप भार से परिपूर्ण भरित होकर चिदानन्दामृत केसार की साक्षात् प्रतिमा हो जाता है । तब एकत्व विभक्त शुद्धरूप प्राप्त कर, अत्यन्त लाघव गुणी हो नियन्त्रित और सीमित, ऊर्ध्वगति से एक ही समय में सीधा गमन कर आप अविचल स्थिर प्रतापी हो एकाकी विजय प्राप्त करते हो । अपार महिमा है परमात्म स्वरूप की । इस प्रकार यह आत्माराम स्वयं अपनी ही उद्दाम पुरुषार्थ से सर्वतंत्र स्वतंत्र अपने परमात्म साम्राज्य को विजयकर स्वाधीन हो जाता है ॥ २२ ॥
त्रिकाल में संचित पूर्ण रसभरित आनन्दरस का पान करते हुए सर्वहितकारी मित्रवत् सतत उदीयमान, अद्भुत ज्ञान और दर्शन का उपभोग करते रहोगे । अनन्त और अविचल सुखानुभव के लिए वीर्य शक्ति भी अनन्त