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चतुर्विंशति स्तोत्र
होना अनिवार्य है । अतः आप परमपरमेश्वर हो अनन्त कल्पकालपर्यन्त सुख के उपभोक्ता हो चिर सुखी रहोगे ।। २३ ।।
उपर्युक्त शुद्ध सिद्धावस्था अब परिणमित नहीं होगी, इसलिए असंक्रमित के समान है | मानों वज्रसूची द्वारा उत्कीर्ण के सदृश है । पूर्ण विकर्षित के समान है अर्थात् अन्तिम निकषा पर खरी हुयी के समान है,
अपने ही स्वरस में निमग्न इव स्थिर- शान्त है | अपने विश्वव्यापी ज्ञान स्वभाव से मानों अशेष विश्व को पी लिया है । उद्दाम-प्रचण्डवीर्य के बल से गर्वित अनन्त दर्शन के विकास से मानों लीलारूप हो रहा है अर्थात् संसार के गाना चित्र-विश्विन वद.पी ले परिणत पदार्थ आत्मस्वभाव की परम निर्मल आदर्शसमान रूप में प्रतिविम्बित हो रहे हैं । ऐसा प्रतीत होता है विविध दिशाओं में नाना प्रकार के गुण-पर्यायों से परिणमित होते पदार्थ हे देव! मानों इस स्वच्छता को अपना क्रीड़ास्थल ही बनालिए हैं ॥ २४ ।।
हे देव! भो परमात्मन्! मैं भी स्वयं अपने चित्तकोश को स्पष्ट करूँ मेरी इस प्रकार की शक्ति द्वारा मैं सम्पूर्ण जगत का ज्ञाता हो जाऊँ ऐसा विकास प्रदान करिये । हे प्रभो! मेरा यह चिद् चमत्कार-चैतन्य स्वभाव विस्तार को प्राप्त हो । अपने उल्लास-हास द्वारा निश्चय से मैं सर्वव्यापी हो जाऊँ ।
अभिप्राय यह है कि मैं, अपने को अपनी ही ज्ञानशक्ति द्वारा, अपने में पूर्ण चिद् रस भरित अवस्था प्राप्त करूँ | जैन दर्शन में परमात्मा को सर्वमय ज्ञानापेक्षा से स्वीकार किया है । परमात्मा का अंशरूप सर्व आत्माएँ हैं इसलिए वह सर्वव्यापी है ऐसा स्वीकार नहीं करता है । अपितु प्रत्येक भव्यात्मा परमात्मा बनने योग्य है ।
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