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चतुर्विंशतिस्तोत्र
सम्पूर्ण कषाय के भारी बोझ भार को उगल कर अब अनन्त गुणी विशुद्धि का आश्रय लेता हैं । इस परिणाम विशुद्धि से असंख्यात शुभ संयमलब्धि स्थान को प्राप्त करता है । सूक्ष्मसाम्पराय में प्राप्त जीव यथाख्यात चारित्र से कुछ ही न्यून रहता है । इस प्रकार गुणस्थान रूपी सोपान सीढ़ियों से उपरि- उपरि आरोहण करते हुए तुम आत्मविकास के अन्तिम शिखर को प्राप्त कर एक शिखामणि स्वरूप अवस्था पर पहुँचो | श्री जिनेन्द्रप्रणीत मार्ग का यही क्रम हैं || १६ ||
अविरति प्रमाद एवं कषायादि सम्पूर्ण पर भावों का अभाव कर सूक्ष्मसाम्पराय दशा को भी पार कर यथाख्यात संयम की प्राप्त होता है । यहाँ एकर्त्यायितर्क ध्यान में स्थित होता है । शुक्लध्यान के चार भेद हैं । प्रथम पृथक्त्ववितर्क ध्यान नियोग युक्त होता है। एकत्वधितर्क द्वितीयध्यान किसी एक योग के आश्रय से सवितर्क और अवीचार होता है । श्रुत को वितर्क कहते हैं । अर्थ, व्यञ्जन, योग के संक्रमण - पलटने को बीचार कहते हैं। अर्थ से अथान्तर, शब्द से शब्दान्तर, योग से योगान्तर परिवर्तन संचार या संक्रमण होने से होने वाली विविधता को भी त्याग कर तुम अब एकाग्रचित्त होकर असंक्रमण अवस्था प्राप्त करो | इस प्रकार एक विषय में एकाग्रचित्त स्थित होते ही ग्रन्थावस्था से निकल पूर्ण निग्रन्थावस्था को प्राप्त कर अनन्त आत्मतेज स्फुण्यमान होगा | अपने आत्मवीर्य को उत्तेजित करने में तत्पर हो ।। १७ ।।
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उद्यमशील क्षपक इस प्रकार प्रत्यक्ष असंख्यात गुणी निर्जरा के आश्रय से अन्त में अर्थात् क्षीणकषाय- बारहवें गुणस्थान में चारों घातिया कर्मों के
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