________________
चतुर्विशति स्तोत्र = अभीक्ष्ण श्रुतज्ञान की अवच्छिन्न ज्ञानशक्ति के द्वारा शुद्ध द्रव्य और अनन्त पर्यायों में स्थित, तीक्ष्ण तेजोमय इस परमात्मरूप मूर्ति की तर्कणा करो ! अर्थात् निर्मल सम्यज्ञान की कषौटी से ही निज देहस्थ आत्मा की पहिचान करो । तब तक कि यह क्षायोपशमिक ज्ञान आक्रमण कर तुम्हें अपवाद भूमि में न गिरादे उसके पूर्व ही शुद्ध, सुन्दर, निश्चल क्षायिकज्ञान का तुम अनुभव करो । अर्थात् खण्डरूप ज्ञान में अटक कर नहीं रह जाना, भो आत्मन्! तू अक्षय अखण्ड, चिरन्तन ज्ञानमय है यह समझ और उसी की प्राप्ति के लिए सतत उद्यमशील हो ।। १० ।।
भो आत्मदेव! आप अपने को उग्रोग्र तपश्चरणरूपी अग्नि से निरन्तर नपाओ । चतुर्दिशाओं मे ताग्नि से तपकर ही आत्मा और कर्मों-द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म के अनादिकाल से मिले रूप को भिन्न-भिन्न करने में समर्थ हो सकोगे । कर्म जाल के ताना-बाना को विश्लिष्टकर सकोगे | इस प्रकार द्वादशविध तपों के माध्यम से तुम क्रम से परमोत्कृष्ट कुशलता प्राप्त हो जाओ | ज्ञान और कर्मकाण्डक्रिया - ज्ञान क्रिया और अन्य नय क्रिया के भेद को अवगत करने वाले परम विवेक - भेदज्ञान को प्राप्त कर उसके फलानुभव में निपुण हो जाओगे || ११ ॥
अप्रमत्त-सातवें गुणस्थान के सातिशय भेद को प्राप्त कर भव्यात्मा श्रेणी आरोहण करता है । यह श्रेणी-उपशम या क्षायिक दोनों में से कोई एक प्रारम्भ करता है | इस अवस्था में वह अधः प्रवृत्तकरण करता है | करण का अर्थ परिणाम हैं | अधः करण रूप परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं और इनका काल अन्त मुहूर्त मात्र होता है । इन परिणामों से प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धता होती जाती है जिसके बल से कर्मों का उपशम, क्षय, स्थितिखण्डन और अनुभाग खण्डन रूप कार्य होते हैं । भो आत्मन्! तुम इस श्रेणी आरोहण की स्थिति को प्राप्त करो, परिणामों की विशेष विशुद्धि को वृद्धिंगत करो । अपने उत्तम संहनन और आत्मशक्ति-वीर्य
४८