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चतुर्विंशति स्तोत्र
चतर्विजनिक
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यदि यह प्राणी निरन्तर नित्य ही वहिरामा बना रहता है । अर्थात् शरीरादि पर वस्तुओं को ही अपना निज स्वभाव मानता हैं और तदनुसार अपने को सुखी-दुखी, मूर्ख- प्रवीण, रक-राव आदि समझता है तो तीव्र मोहाविष्ट होने से बुद्धि विहान हुआ अपने आत्मस्वरूप की भूमिका को प्राप्त नहीं कर सकता । इस दशा में वह देखता हुआ भी मोहतमसाच्छन्न होने से देख नहीं सकता । अभिप्राय यह है स्वयं के पास उपस्थित भी निज रस का आनन्द नहीं ले सकता | परन्तु यही भव्यात्मा यदि चारों ओर से अपने उपयोग को शुद्धोपयोग की सुदृढ़ भूमि में स्थिर कर दे तो निश्चय से अन्तर्मुखी होकर उसी परमात्मा के शुद्ध स्वरूप को ही देखेगा । हे प्रभो आपने स्व पर भेद-विज्ञान का उपाय एक मात्र उपयोग की शुद्धता ही बतलाई है | उपयोग जिस ओर जाता है वह उसी को प्राप्त करता है । ज्ञान-दर्शन का परिणमन ही उपयोग है ||५||
साधक जिस समय शुभोपयोग की भूमिका से ऊपर उठकर शुद्धोपयोग रस से परिपूर्ण हुआ अपने लक्ष्य की ओर बद्धकासनद्ध होता है, उस समय साक्षात् स्वयं तप रूप हो जाता है । अर्थात् तपः साधना की
ओर तत्पर होता है । उत्कृष्ट चारित्रमोह एवं ज्ञानावरणादि के क्षयोपशम विशेष से प्राप्त शक्ति युक्त होता है । कषाय रूप रस गलित होने लगता है । क्षीण कषाय होने से आत्मा एकविशेष आनन्द रस के स्वभाव का अनुभव करता है । अर्थात् क्षायोपशमिक चारित्र की परिपूर्णता होने लगती है । यह सप्तम गुण स्थान की निरतिशय दशा से सातिशय अवस्था को प्राप्त करने के उन्मुख होता है । विकल्प जाल और प्रमाद से रहित दशा प्राप्त करने में सक्षम होता है ।। ६ ॥
___ ध्यानारूढ़ दशा में उदयागतकर्मों की उदयावली उदीणारूप हो शीघ्रता से प्रगलति-निर्जरित होने लगती है | असंख्यातगुणी निर्जरा होने लगती