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चतुर्विशति स्तोत्र कर्म रूप पुद्गलद्रव्य का आसान होता है एवं तत्काल कामरूप परिणामों से आगत द्रव्य कर्म आत्मप्रदेशों में नीर-क्षीर न्याय वत स्थिति प्राप्त करते हैं । इस प्रकार द्रव्य और भाव की वह परम्परा अबाध रूप से चलती रहती है । इसी लिए आप के द्वारा प्रणीत आगम में आम्रवादि तत्त्वों को द्रव्य और भावापेक्षा द्विविध बतलाया है । यह द्रव्य स्वभाव अबाध है । क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के द्वारा यह स्वयं सिद्ध व्यवस्था है । परन्तु जो इस सापेक्षता को स्वीकार नहीं करते वे एकान्तपक्ष के पक्षपाती होने से कर्तव्य च्युत हो जाते हैं । जो यह मानें कि हमारा आत्मद्रव्य तो शुद्ध-विशुद्ध टकोत्कीर्ण ज्ञायक है ही उसका पर भाव या द्रव्य क्या बिगाड़ सकता है तो वह स्वच्छन्द होकर पर परिणति में ही लिपटा रहेगा | इसी प्रकार जो एकान्त से भाव की प्रधानता स्वीकारते हैं वे भी निज स्वभाव के प्रति उदासीन हो भटकते हैं । अतः इस प्रकार की 'एकान्ती प्रवृत्ति संयमपथ से भी भ्रष्ट कर अनन्त संसारी बना देगी । अतः हमें अपेक्षायुक्त मार्ग को अपनाना चाहएि । अर्थात् निश्चय व व्यवहार विषय में स्वच्छन्द नहीं होना अपितु दोनों की मैत्री के अनुसार चलना चाहिए । यही आपका मार्ग है || ३ ||
"इच्छानिरोधस्तपः" इन्द्रियविषयकषायों में प्रवृत्त इच्छाओं का सम्यक् दमन कर तप करे तो उससे अनुभावित हुए राग-द्वेष विकार शान्त हो जाते हैं | उस अवस्था में तुम्हारा अन्तरग और आभ्यंतर स्वभाव समानरूप से साम्यभाव द्वारा भावित हो जाय समता रस वाह्याभ्यन्तर परिणति एक रूप हो जाय । पहले ये दोनों वाह्य में समान रूप से प्रमाण के प्रमेय बने थे । किन्तु ये दोनों राग-द्वेष अब अन्तर्दृष्टि जाग्रत होने पर दोनों सेवक के रूप में जाने जाते हैं । अभिप्राय यह है कि जब तक राग-द्वेष का वाह्य व्यापार चलता है तभी तक अन्तरंग मलिन होता है और यथार्थता प्रमेय रूप से अवगत नहीं होती । आभ्यन्तर परिणति के जाग्रत होते ही तथ्य समक्ष-प्रत्यक्ष हो जाता है ।। ४ ।।
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