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चतुर्विशति स्तोत्र होता है वही उस स्वरूपता को प्राप्त करता है । तद्रूप हो जाता हैं || २ ।।
जो जन नाना संकल्प-विकल्पों से जनित नानारूप कर्मधुलि से अपने अन्तर्जगत को व्याप्त करते हैं, आच्छादित करते हैं वे मानों अनेक अंकुशों-मोह-मायादि केटकों से आत्मनिधि सम्पन्न निजखान को व्याकीर्ण करते हैं । इस प्रकार अज्ञानतिमिर से व्याप्त पशु समान मूढ ही हैं । हे विभो! ऐसे निपट विपरीतानि निवेश में पड़े, स्वयं में भरे अति निकट रहने वाले सुख-शान्ति के खजानेरूप आत्मतत्त्व को अवलोकन नहीं कर पाते हैं । वे प्रकट निधि से भी वंचित रहते हैं । अभिप्राय यह है कि उत्तम नरभव पाकर भी जो अपना सद्बोध जाग्रत कर आत्मस्वरूप की पहिचान नहीं करते वे निपट पशुवत हैं । अतः सम्यक् दर्शन पूर्वक सद्वोध जाग्रत करना मानब जीवन का सार है || ३ ||
जहाँ वाह्य पदार्थों का अगाध-घोर तिमिर अस्त होता है, अर्थात् बहिंग़त्मबुद्धिरूप घनघोर तमतीम जिस समय विनष्ट होता है, उसी समय उसी में से निश्चय से तुम (आत्मज्योति) उदीयमान होती हो । जिस प्रकार नीलाकाश में जहाँ सघन कृष्ण धनधिर कर घोर अंधकार मय आच्छादित होते हैं, वहीं से अर्थात् उन मेघपटलों को भेदन कर रविरश्मियाँ प्रकाशपुञ्ज लिए प्रकट होती हैं । इसी प्रकार चारों ओर से अज्ञान तिमिराच्छन्न आत्मा भी अपने प्रभाव से अविद्या को बिघटित कर स्वयं बोधमात्र प्रकाशित होता है । चारों ओर से ज्ञानघन स्वभाव प्रकट हो जाता है ।। अर्थात् अज्ञान तिमिर से ज्ञान भानु प्रकट हो चमकने लगता है तद्रूप पुरुषार्थ करने पर । हिरात्मबुद्धि त्याग कर अन्तरात्मा बनी यह तात्पर्य हैं || ४ ||
प्रस्तुत लोक में चिदात्मा की चैतन्य ज्योति स्वरूप की स्थिति को सिद्ध करते हुए जिन शासन की विधि-निषेधात्मक सिद्धान्त पद्धति को प्रकट
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