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किरण १]
भगवान महावीर, जैनधम और भारत
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जैनधर्ममें व्यक्त पाते हैं। पूर्णज्ञान प्राप्त करनेके भी गिराया। फिर भला समाज और देशका पतन बाद उनका प्रथम उपदेश राजगृहमे जिसे आजकल न होता तो और क्या होता। नतीजा हुआ कि हमने 'राजगिर' कहते हैं वहाँ एक महती सभामें श्रावण- सदियों तक गुलामी भुगती और अब भी जब स्ववदि प्रतिपदाको हुआ, जो तिथि वीर-शासन-जयन्ती- तंत्र हुए हैं तब हमारा मानसिक और नेतिक धरातल के रूपमें आज एक पावन पर्वका रूप धारण इतने नीचे चला गया है कि हम अपनी इस स्वतकिए हुए है। कहते हैं कि उस सभामें मनुष्य त्रताका वास्तविक फल एकदम नहीं पा रहे हैं।
और मनुष्यनियों के अतिरिक्त सभी जीवमात्र-पशु- हमारे ऊँचे नेता चिल्ला-चिल्लाकर थक से रहे हैं पर पक्षी वगैरहके बैठनेका प्रबन्ध किया गया था और हमारा धर्मान्धकार अब भी जल्दी नहीं हटता। भगवानके तीन अहिंसामय तेजसे बिचकर अन- संसारमें सभी जीव बराबर हैं-सभीमे वह आत्मा गिनत पशु-पक्षी आए थे और उन्होंने भी उनकी है जो किमी भी एक आदमीमें है। जैनधर्म मानवीय अमृतवाणीके स्पर्शमात्रसे ज्ञान प्राप्त किया। मानवों- बराबरी ही क्यों वह तो सार्वभौम एवं अग्विल का तो फिर पूछना ही क्या। आज तो हम मनुष्य भूतको बराबरी तथा ऊपर आनेका और ईश्वरत्व मनुष्यको एक माथ एक मभामें बैठने देना पसन्द प्राप्त करने का सत्व या जन्मसिद्ध अधिकार मानता नहीं करते। ऊँच-नीच, छत-अछत वगैरहका इतना और कहता है-भले ही आज हम अपनी अज्ञानता भेद-भाव बढ़ा रखा है कि जो अपनेको बड़ा, एवं वहममें इसे अन्यथा मानते या कहते रहें यह ऊँचा या पवित्र समझते हैं उन्होंने अपने इसी दूसरी बात है । कुछ स्वार्थियोंने अपना नीच मतलब घमंडमें धर्म या धार्मिक तत्वोंकी अमलियतको छोड़ गाठनेके लिए हर-तरहके गलत-फलत या गन्दी ढोंग और मायाचारको अपना लिया और उसीको बुरी रीतियां या विश्वास फैला दिये और धार्मिक धर्माचार समझकर पतन होते-होते एकदम नीचता- तत्वोंका मतलब अपने मन-माना जैसा-चाहा विकृकी सीमाको पार कर गये। अपने पूज्यपना या तरूपमें लोगोंको समझा दिया । यही सारे अनर्थीका पवित्र होनेके मिथ्याभिमानमें इन लोगोंने अपनी मूल रहा है। उन्हीं विकृत बातों-रीतियों या रूढ़िविशेष मानसिक बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति करना योंको हम आज भी वगैर सोचे समझे पकड़े हुए छोड़ दिया और अपने बड़प्पन, पूज्यपना या ऊँचे हैं। यदि कोई इनसे खलाफ (विरुद्ध) कुछ कहना होनेके घमंडमें या उसे अक्षुण बनाये रखनेके लिए चाहता है तो उसे वजाय सुननेक हम मारने या इन थोड़ेसे लोगोंने अगणित लोगोंको अपनी मामा काटने दौड़ते है। पर इससे तो धर्मकी ही हानि जिक शक्ति या प्रभावद्वारा नीच. अच्छत या अपवित्र सर्वत्र होरही है। धर्म और धर्मके साथ ही सब कहकर उन्हें ऐमा बनाए रखा और ऐमा बने रहनेके कुछ नीचे चलता जाता है । अब भारत स्वतंत्र हुआ लिये हर-तरहसे मजबूर और बाध्य किया-इम और जरूरत इस बातकी है कि हम विदेशी प्रभावसे तरह स्वयं पतित हुए और दमगेको भी पतित मुक्त इस वातावरणमें स्वयं कुछ मोचे समझे और वि. किया । और इस डरसे कि कहीं सुशिक्षित या चारे एवं हर-एककी बात जाननेकी चेष्टा करेसुसंस्कृत होकर ये पतित या नीच कहे जानेवाले वगैर किसी विरोध या Bias के-तभी हमें सत्यसे कहीं उन लोगोंसे ऊपर न आजा जो पवित्र या भेंट होगी और फिर हम अपने या धर्मकी असलिऊँचे कहे जाते हैं-इन ऊँचे कहे जानेवालोंने उनको यतको सचमुच पावेंगे । और तभी हमारी एवं हर-तरहसे बौद्धिक मानसिक एवं नैतिक विकास हमारे धर्मकी, हमारी जातिकी, हमारी संस्कृतिकी, करनेसे रोक दिया। आप भी गिरे और दमरोंको देशकी स्थायी उन्नति होगी और होती जायगी।