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अनेकान्त
[वर्ष ४
मिलते हों अधिक महत्वपूर्ण और समाजोपयोगी है। बेरोकटोक और निर्बन्ध है । उसमें स्वार्थ और एक प्रश्न उठता है-पढ़ लिखकर मनुष्य क्या करे ? वासनाके अतिरिक्त और किसीकी प्रेरणा नहीं है । छोटी समझ वाले लोग भी यदि इस प्रश्नका विद्वत्ता- ठीक है । तो फिर यही क्यों न समझिये कि विवाहका पूर्ण समाधान नहीं करेंगे तो कदाचित यह उत्तर नहीं उद्देश्य सामाजिक दृष्टिसे समाजमें सदाचारकी वृद्धि दगे कि पढ़ लिखकर मनुष्य रुपया कमाने पर पिल करना, दुराचारका नाश करना, शिथिलाचारका पड़े। बुद्धिमान् मनुष्योंके पास इस प्रश्नका यही मिटाना और सुन्दर आचरणका स्थापित करना है। उत्तर होगा कि पढ़ लिखकर मनुष्य सर्व प्रथम अपने व्यवस्था और नियमका बनाए रखना है। पाश
आत्मामें ज्ञानका प्रकाश करे फिर दूसरोंका अज्ञान विकताका मूलोच्छेद और मनुष्यताका निर्माण करना नष्ट करे। बुराईसे बचे और भलाईको अपनाये। है। गैयक्तिक दृष्टि से विवाहका उद्देश्य है त्याग और अपने स्वार्थको छोड़े और दूसरोंका उपकार करे। तपस्या । सेवा और उपकार । अपने स्वार्थोंको भुला इसी तरह विवाहके सम्बन्धमें भी सवाल खड़ा हो कर दूसरोंके लिए बलिदान करना । विवाह करने के सकता है। वह यह कि विवाह करके मनुष्य क्या पहिले जहाँ मनुष्य अपने ही निजके हितोंकी रक्षामें करे ? विचार पूर्ण विद्वानोंसे तुरन्तही इसका जवाब चिन्ता में रहता है, विवाह करनेके बाद वह दूसरों के हम आसानीस यह शायद हो सुनें कि शादी करके हितोंकी रक्षामें निमग्न रहता है। विवाह करनेसे मनुष्य सन्तान उत्पादनकं कार्यमें लग जाय । यह पहिले वह दूसरोंसे कुछ लेनेकी अभिलाषा रखता है उत्तर साधारण समझ वालोंके गले भी सरलताके किन्तु विवाह करनेके बाद वह दूसरोंको कुछ देनेकी साथ नहीं उतर सकता। एक बात है । सन्ततिक्रम सीख ग्रहण करता है । विवाहके पहले उसके जीवन पशु-पक्षियों में भी अनादि कालसे अविच्छिन्न रूपमें का क्षेत्र उमका अपना ही जीवन है किन्तु विवाहके चला रहा है । किंतु उनमें विवाहकी प्रथा नहीं बाद वह विस्तृत होजाता है। विवाहके पहले वह है। मनुष्य समाजमें भी कुछ ऐसे वर्ग हैं जिनमें अपने ही अपने क्षुद्र स्वार्थों में लगा रहता है, किन्तु
आचरण-सम्बन्धी पूर्ण स्वच्छन्दता है और विवाहका विवाह के बाद वह दूसरेके अर्थ अपने आपको प्रतिबन्ध नहीं है, उनमें भी सन्ततिक्रम विद्यमान बिछा दता हा है। फिर ऐसी कौनसी वजह है जो सन्ततिक्रमके लिये कुछ लोगों का कहना है कि विवाहका उद्देश्य विवाह-बन्धनकी ही आवश्यकता हुई, जब कि प्रेम है । प्रेम जैसी सुन्दर वस्तुको प्राप्त करने के लिए विवाहके बिना भी वह जारी रह सकता है। लेग ही मनुष्य विवाह करता है। प्रेम ही एक ऐसा आकर्षण कहेंगे, पशु-पक्षियों और जंगली जातियोंमें जो संतति- है जो दो भिन्न भिन्न आत्माओंको मिला देता है। क्रम जारी है उसकी तहमें, दुराचार, अनीति, जो लोग ऐसा कहते हैं उनसे यह पूछा जासकता है स्वछन्द-आचरण, अनियम और अव्यवस्था विद्यमान कि यह प्रेम है क्या वस्तु ? अगर उनका प्रेम त्याग है। वह संततिक्रम पाशविक और असभ्यतापूर्ण और बलिदानके रूपमें है तो विवाहका उद्देश्य प्रेम है। वह मानुषिक और लोकहित-पूर्ण नहीं है । वह उचित ही है किन्तु यदि केवल वासनाका आकर्षण है