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किरण ८]
सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता
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होनसे उमं प्रथमाका द्विवचन न मानकर मप्रम्यन्त दूरवर्ती भाष्यका' का विशेषण नहीं हो सकता किंतु पद मानना ही उचित है । दूसरे, यदि उसको प्रथमा निकटवर्ती 'सत्र' का ही हो सकता है। दुमरे, उस का द्विवचन मान भी लिया जाय तो वह 'सूत्रभाष्य' पदको 'मातम्यन्त' ही माननेका यदि आग्रह हो तो पदका विशेषण हानसे यह अर्थ होगा कि तत्वार्थसूत्र वह पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार के कथनानुसारक
और भाष्य ही 'अर्हत् प्रवचन' हैं-दूमरे पागमादि षष्ठी तत्पुरुषका ही रूप सबसे प्रथम संभवित है; ग्रंथ अहन्प्रवचन नहीं हैं। भागमादि ग्रंथाके साथ कारण कि शीघ्र शाब्दबोधकतामें षष्ठीतत्परुषकी वह 'अर्हन् प्रवचन' शब्द देखा भी नहीं जाता। अतः तरफ सबम पहले हट जाता है और तब उस पदका ऐमा महान् अनथ न हो जाय इसके लिये ही 'तत्वा- अर्थ यह हो जाता है कि-'एमास्वाति वाचक-बिर
र्थाधिगमें पदक पूर्व 'अर्हत् प्रवचने' पद विन्यस्त चित सत्वार्धमत्रके भाष्यमे'। इस अर्थसं यह स्पष्ट किया गया है, जिसका तात्पर्य यही है कि वह पद प्रतीत होता है कि भाष्यकर्ता तत्वार्थसूत्रकर्तासे जुदे मप्तमीका ही ममझा जाय और इस तरह उमसे कोई हैं। अतः कहना होगा कि दोनों विभक्तियोंमेले काई अनर्थ घटित न होजाय।
भी विभक्ति लीजाय-परंतु प्रा० मा० की एककर्तृत्व इसी प्रकरणमें पो० साहबने एक बात यह भी की अभीष्ट सिद्धि किमीसे भी नहीं बन सकती। पूछी है कि "उस भाष्यका कर्ता कौन हैं जिम पर दुमरे, 'तुष्यतु दुर्जनन्यायम' यदि यह मान भी ग्रंथकार टीका लिम्व रहे हैं ?" इसका जवाब ऊपर लिया जाय कि मिद्धमन गणी दोनोका एक कर्तृत्व ही
आ चुका है, जिसका आशय यह है कि भाष्यमें मानते थे' तो वे आपके मतानुसार भले ही मानें, उन कारिकाओं के विपरीत 'वक्ष्यामः' जैसे बहवचनान्त के माननकी कीमत ना तव हाती जब कि उस क्रियापदोंका प्रयोग पाया जाता है, इमलिये भाप्यके विषयमें किसी प्रबल हेतुका स्पष्ट उल्लेख करते; परन्तु कर्ता उमास्वाति न होकर कोई दमर ही हैं और वे उन्होंने वैसा काई उल्लेख किया नहीं नथा भाष्यकार मंभवन: अनक हैं।
। स्वतः अपने सूत्रकारको जुदा सूचित करते हैं, तो फिर ___ इस प्रकरणमें 'उमाम्बातिवाचकोपजमत्रभाष्ये' ऐसी दशा में सिद्धसनगणीको बेमी मान्यताकी कीमत पदको लेकर द्वंद्वममामगन मतमी विभक्ति माननकी भी क्या हो सकती है और उससे भाग्यविषयक जो आपकी धारणा थी उमका ग्बंडन ऊपर अच्छी प्रचलित संदिग्धताका निरसन भी कैसे बन सकता है ? तरह किया जा चुका है अर्थात् वह पद वहाँ सप्तमीके इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सका है। रूपमै ठीक बैठना नहीं किंतु प्रथमाका द्विवचन ही अतः इस दूमरे प्रकरणमें भी उत्तररूपसे जो ठीक बैठता है। कदाचिन उसे मतमीका एक वचन बातें कही गई हैं उनमें कुछ भी सार नहीं है और भी माना जाय तब भी वह हो उत्तर उम पक्षमें दिया न उनके द्वारा भाष्यको 'स्वापक्ष' तथा 'ब्रहस्प्रवचन' जा सकता है, क्योंकि समाहारदम वह सप्तमीका ही सिद्ध किया जा सकता है। एक वचनान्त माना जा सकेगा तो वहाँ संदिग्ध विशेष ऊहापोह के लिये देखो 'अनेकान' वर्ष ३ कि० १२ अवस्थामें उमास्वातिवाचकोपज्ञ' यह विशेषण पृ० ७३५ पर परीक्षा नं. ३