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भनेकान्त
विषं ४
नहीं हैं जो अपने पाचरण-बल और सातिशय वाणीसे अपरि- को प्राप्त हुमा संसार यदि परिग्रहको पापरूपमें नहीं देखना ग्रहके महत्वको लोक-हदयोंपर भले प्रकार अंकित कर सकते- और न उसे कोई अपराध ही समझता है तो सिर्फ इतनेसे ही उन्हें उनकी भूल सुझा सकते, परिग्रहसे उनकी लालसा, यह नहीं कहा जासकता कि परिग्रह कोई पाप या अपराध ही गृद्धता एवं प्रासनताको हटा सकते. और अनासक रहकर नहीं रहा, और इसलिये उसका प्रायश्चित्त भीन होना चाहिये । उसके उपभोग करने तथा लोकहितार्थ वितरण करते रहनेका वास्तवमें मूर्षा, ममत्व-परिणाम अथवा 'ममेदं' ( यह मेरा ) सहा-सजीव पाठ पढ़ा सकते । कितने ही साधु तो स्वयं महा- के भावको लिये हुए परिग्रह एक बहुत बड़ा पाप है, जो परिग्रहके धारी हैं-मठाधीश, महन्त-भट्टारक बने हुए हैं, आत्माको सब पोरसे पकड़े-जकदे रहता है और उसका
और बहुतसं परिग्रहभक्त सेठ-साहूकारोंकी हॉमें हैं। मिलाने विकास नहीं होने देता। इसीसे श्रीपूज्यपाद और प्रकलंकवाले हैं, उनकी कृपाके भिखारी हैं, उनकी असत् प्रवृत्तियोंको देव जैसे महान् प्राचार्योंने सर्वार्थसिद्धि तथा राजवातिक प्रादि देखते हुए भी सदैव उनकी प्रशंसाके गीत गाया करते हैं- ग्रंथों में 'तन्मूलाः सर्वे दोषाः', तन्मूलाः सर्वदोषानुषंगाः' उनकी जस्मी, विभूति एवं परिग्रहकी कोरी सराहना किया करते इत्यादि वाक्योंके द्वारा परिग्रहको सर्वदोषोंका मूल बतलाया हैं। उनमें इतना प्रात्मबल नहीं, पास्मतेज नहीं, हिम्मत नहीं है * । और यह बिल्कुल ठीक है--परिग्रहके होने पर उसके जो ऐसे महापरिग्रही धमिकोंकी मालोचना करसके --उनकी संरक्षण-अभिवर्धनादिकी ओर प्रवृत्ति होती है, संरक्षणादि त्याग-शून्य निरर्गल धन-दौलतके संग्रहकी प्रवृत्तिको पाप या करने के लिये अथवा उममें योग देते हुए हिंसा करनी पड़ती अपराध बतला सकें । इस प्रकार जब सभी परिग्रहकी कीचमें है, झूठ बोलना पड़ता है, चोरी करनी होती है, मैथुनकर्ममें थोड़े बहुत धंस हुए हैं-सने हुए हैं, तब सिर कौन किसीकी चित्त देना पड़ता है, चित्तविक्षिप्त रहना है, क्रोधादिक कषायें तरफ जंगुली उठावे और उसे अपराधी अथवा पापी ठहरावे? जाग उठती हैं, राग-द्वेषादिक सताते हैं, भय मदा घेरे रहता ऐसी हालतमें परित्रहको प्रामतौर पर यदि पाप नहीं समझा हैं, रोद्रध्यान बना रहता है, तृष्णा बढ़ जाती है, प्रारंभ बढ़ जाता और न अपराध ही माना जाता है तो इसमें कुछ भी जाते हैं, नष्ट होने अथवा क्षति पहुँचनेपर शोक-सन्ताप श्रा पाश्चर्य नहीं है।
दबाते हैं, चिन्ताओं का तँता लगा रहता है और निराकुलता परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी परिग्रह पापकी--
कभी पास नहीं फटकती। नतीजा इस सबका होता है अन्त अपराधकी कोटिस निकल नहीं जाता। उसे पाप या अपराध
में नरकका वास, जहाँ नाना प्रकारके दारुण दुःखोंसे पाला नमानमा अथवा तपन देखना दृष्टिविकारका ही एकमात्र पड़ता है और कोई भी रक्षक एवं शरण नज़र नहीं पाता। परिणाम जान पड़ता है। धतूरा खाकर दृष्टिविकारको प्राप्त इसीसे जैनागममें बहुभारम्भी-बहुपरिग्रहीको नरकका अधिहुमा मनुष्य अथवा पीलियारोगका रोगी यदि सफेद शंखको कारी बतलाया है, क्योंकि बहुभारम्भ (प्र.णिपीडाहेतुण्यापार) भी पीला देखता तो उससे वह शंख पीला नहीं होजाता धार बहुपरिग्रह सिद्धान्तमें नरकायुके प्रास्रवके कारण कहे और न उसका शुक्ल गुण ही नष्ट हो जाताप्रथा ठगों * ज्ञानार्णवमें शुभचन्द्राचार्य ने बाह्य परिग्रहको निःशेषानर्थका समान यदि झूठ बोलने और चोरी करनेको पाप नहीं
मन्दिर' लिखा है क्योंकि उसके कारण अविद्यमान होते मा
होते हुए भी रागादिक शत्र क्षणमात्रमें उत्पन्न होकर सममता तो उससे भूठ मोर चोरी पापकी कोठिसे नहीं
तो उससे झूठ भरि चारा पापका काठिस नहा अनिष्ट कर डालते हैं। निकल आते। ठीक इसी तरह मोह-मदिरा पीकर रष्टिविकार : इस विषयमें पुरातन प्राचार्योंके निम्न वाक्य भी ध्यानमें